जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं अरविंद केजरीवाल

दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर आम आदमी पार्टी ‘जनमत संग्रह’ करवा रही है. आम आदमी पार्टी का कहना है कि कॉंग्रेस से समर्थन लेने का मन नहीं है, लेकिन कुछ लोग कह रहे हैं कि समर्थन लेना चाहिए, ऐसे में हम ‘जनमत संग्रह’ के बाद तय करेंगे कि हम सरकार बनाएंगे या नहीं. आम आदमी पार्टी ने ‘जनमत संग्रह’ के लिए एसएमएस व सोशल वेबसाइट्स की मदद ली है. सवाल ‘जनमत संग्रह’ के इस तरीके पर भी उठ रहे हैं और सवाल यह भी है कि आखिर लोकतंत्र में जब जनता ने अपने प्रतिनिधि चुन लिए, तो क्या हर फैसले के लिए बार बार जनता के बीच जाना संभव है, या प्रतिनिधियों को खुद फैसला करना होगा. सवाल यह भी है कि क्या अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से जो वादे किए क्या उनको पूरे करने की स्थिति में ही नहीं हैं और सरकार बनाने से डर रहे हैं?

 

दिल्ली विधानसभा चुनाव इस बार राजनीति और लोकतंत्र की प्रयोगशाला साबित हुई. तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित एक साल पुरानी पार्टी के नेता के हाथों पराजित हो गईं. जनता से इस एक साल पुरानी पार्टी आम आदमी पार्टी ने बड़े वादे किए. जनता से कहा कि बिजली की दरें आधी कर दी जाएंगी और बड़ी मात्रा में पानी की मुफ्त आपूर्ति होगी. जनता ने आम आदमी पार्टी के पक्ष में मत किया, लेकिन बहुमत नहीं दिया. आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिलीं और बीजेपी 32 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन गई. ऐसे में लगा कि अब सरकार नहीं बन पाएगी. लेकिन कॉंग्रेस ने बड़ा स्टैंड लेते हुए आम आदमी पार्टी को समर्थन का एलान कर दिया. कॉंग्रेस के समर्थन के जवाब में आम आदमी पार्टी ने शर्तेों की लिस्ट थमा दी. इन 18 शर्तों में से दो को छोड़कर बाकी मामलों में किसी पार्टी के समर्थन की जरूरत नहीं थी और सरकार खुद फैसले कर सकती थी. जबकि बाकी दो पर भी कॉंग्रेस राजी हो गई. फिर लगा कि अब तो दिल्ली में सरकार बन गई समझो. इसके बावजूद अभी तक सरकार नहीं और आम आदमी पार्टी ने संभवतः जिम्मेदारी टालने के लिए जनता के बीच जाने का फैसला किया. इसमें अब दिल्ली की जनता आम आदमी पार्टी द्वारा दिए गए फोन नंबरों पर कॉल करके और एसएमएस करके अपनी राय दे रही है. दावा है कि पिछले 24 घंटों में 4 लाख एसएमएस आ गए हैं. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या आम आदमी पार्टी का यह तरीका सही है? क्या उनके जनप्रतिनिधियों को खुद ये फैसला नहीं करना चाहिए? यह भी तो संभव है कि इस प्रक्रिया में ऐसे लोग भी राय दे रहे हों, जो दिल्ली के वोटर ही न हों या फिर वो 18 साल से कम आयु के हों. यह भी संभव है कि इसमें अन्य प्रांतों के लोग भी राय रख रहो हों. ऐसे में आम आदमी पार्टी के ‘जनमत संग्रह’ का तरीका ही गलत है. अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि वे सिर्फ जनता का ‘सेंस’ जानना चाहते हैं. इस पर सवाल है कि क्या वे जनता द्वारा चुने गए अपने विधायकों के बीच वोटिंग नहीं करवा सकते थे?

 

अरविंद केजरीवाल के कदमों से लगता है कि वे दिल्ली में सरकार बनाने की जिम्मेदारी ही नहीं लेना चाहते हैं. तभी उन्होंने कल अपने मन की बात कह दी और कहा कि उनकी पार्टी का मन नहीं है कि कॉंग्रेस का समर्थन लिया जाए फिर भी जनता की राय ले रहे हैं. अगर ऐसा है तो क्या यह समझा जाए कि अरविंद सिर्फ एक बेहतर सामाजिक कार्यकर्ता हैं एक बेहतर राजनीतिज्ञ नहीं? अगर ऐसा है तो आखिर अरविंद चुनावी मैदान में सपनों के सौदागर बनकर कूदे क्यों? अगर अरविंद वाकई दिल्ली की जनता का हित करना चाहते हैं तो सरकार बनाकर ऐसा करने से बढ़िया कोई विकल्प हो नहीं सकता है. लेकिन लगता है कि अरविंद केजरीवाल एक बेहतर सामाजिक कार्यकर्ता तो हैं, लेकिन बेहतर राजनीतिज्ञ नहीं. जनता को जो सपने अरविंद केजरीवाल ने दिखाए हैं, उसके बदले जनता ने उन्हें वोट दिया है. अब इन सपनों को पूरा करने का वक्त है, तो फिर केजरीवाल भाग क्यों रहे हैं – यह समझ से परे है.

 

कॉंग्रेस द्वारा आप को दिया गया समर्थन राजनीतिक वजहों से हो सकता है. लेकिन इतना तय है कि कॉंग्रेस दिल्ली की जनता के दिलों में यह भरोसा जगाने में भी संभवतः कामयाब रहेगी कि कॉंग्रेस दोबारा चुनाव नहीं चाहती है और इसके लिए अपनी विरोधी आम आदमी पार्टी तक को समर्थन देने को तैयार हो गई है. वहीं अगर आप सरकार नहीं बनाती है, तो तो जनता यह समझ सकती है कि अरविंद बातें अच्छी करते हैं, पर काम की जिम्मेदारी शायद नहीं लेना चाहते.

क्या जनता से किए वादे पूरा करना जरूरी नहीं था?

दिल्ली में विधानसभा चुनाव संपन्न हो गए. नतीजे ऐसे आए कि किसी की सरकार ही नहीं बन पा रही है. पहली बार ऐसा हो रहा है, जब सरकार बनाने के लिए कोई जल्दबाजी नहीं है, बल्कि विपक्ष में बैठने को लेकर होड़ है. सरकार बनाने को लेकर पहले आप-पहले आप की लड़ाई में जनता पर जल्द ही दोबारा चुनाव का बोझ पड़ सकता है.

 

दिल्ली विधानसभा चुनाव इस बार खास रहा. सत्तारुढ़ कॉंग्रेस और यहां तक कि दिल्ली की तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित बुरी तरह से हार गईं. वो भी तब, जबकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि शीला ने दिल्ली में विकास किया है और दिल्ली देश के बेहतरीन शहरों में से एक है. कॉंग्रेस की इस बड़ी हार की वजह आश्चर्यजनक तौर पर परंपरागत विरोधी दल बीजेपी नहीं, बल्कि नई नवेली पार्टी आम आदमी पार्टी यानि आप रही. अपने गठन से महज एक साल बाद आप ने यह चुनाव लड़ा और बड़ा उलटफेर करते हुए 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में 28 सीटें हासिल की. बीजेपी ने 32 सीटें हासिल की, जबकि सत्तारुढ़ कॉंग्रेस सरकार महज 8 सीटों तक सिमटकर रह गई.

 

दिल्ली की जनता ने किसी भी दल को बहुमत नहीं दिया. ऐसे में बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों ने यह कहकर चौंकाया कि वे सरकार बनाने की कोशिश ही नहीं करेंगे, बल्कि विपक्ष में बैठेंगे. यानि वे दल जिसे जनता ने सत्ता देनी चाही, वे सत्ता से दूर विपक्ष में बैठना चाह रहे हैं. बीजेपी की तो मजबूरी दिख रही है कि वो सबसे बड़ा दल होने के बावजूद भी 36 के जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंच पाएगी क्योंकि कॉंग्रेस उसे सपोर्ट करेंगी नहीं और अन्य दो सीटों में से एक पर जेडीयू है, जो बीजेपी को समर्थन नहीं देगी.

 

ऐसे में लगा कि दूसरा विकल्प है ही नहीं क्योंकि आप बहुमत से 8 सीटें दूर है. एक विकल्प खुद आप के नेता प्रशांत भूषण व कभी अरविंद की करीबी रहीं किरण बेदी ने सुझाया कि बीजेपी और आम आदमी पार्टी मिलकर सरकार बना लें. इस विकल्प को बीजेपी और आप ने खारिज कर दिया. दोनों का मिलकर सरकार बनाना व्यवहारिक भी नहीं लग रहा था. दोनों दलों में मतभेद की वजह से सरकार ज्यादा दिनों तक शायद टिक भी नहीं पाती. ऐसे में कॉंग्रेस की तरफ से इस बात का इशारा किया कि वे बीजेपी को तो समर्थन नहीं दे सकते, लेकिन दूसरे सबसे बड़े दल आप को वो बाहर से समर्थन देने के लिए तैयार हैं. कॉंग्रेस के 8 और आप के 28 विधायक मिलकर 36 होते हैं, जो बहुमत का आंकड़ा है. इसके अलावा जेडीयू के विधायक ने भी यह साफ कर दिया कि वे जरूरत पड़ने पर आप को समर्थन दे सकते हैं. इस पर आप की तरफ से ठंडी प्रतिक्रिया आई और आप ने कहा कि हम न तो किसी से समर्थन लेंगे और न देंगे. आप का इन दोनों पार्टियों से राजनीतिक विरोध समझा जा सकता है, लेकिन आप को यह जिम्मेदारी भी समझनी चाहिए थी कि जनता ने उन्हें बहुमत के करीब रखा है और बीजेपी के पास विकल्प नहीं है, लिहाजा उन्हें सरकार बनानी चाहिए. लेकिन आप नैतिकता की दुहाई देकर शायद आगे अपने दम पर सरकार बनाने का सपना देख रहे हैं और इससे भी ज्यादा उनकी निगाहें अब 2014 के आम चुनावों पर है. अगर आप दिल्ली में सरकार बना लेती है, तो उन्हें जनता से किए गए वायदे भी पूरे करने होंगे. आप ने दिल्ली में बिजली बिलों में 50 फीसदी की कटौती का वायदा किया था. इसके अलावा फ्री में 750 लीटर पानी दिए जाने की बात थी. शायद इन दोनों वायदों को पूरा करने में आप को दिक्कतें आतीं. इतना ही नहीं बिना अनुभव के पहली बार सत्ता में रहना भी आप के लिए दिक्कतें पैदा करता. लिहाजा उन्होंने सत्ता से दूर रहना उचित समझा. ऐसे में एक सवाल यह है कि क्या उन्होंने जनता के साथ धोखा नहीं किया? कॉंग्रेस उनके साथ कोई गठबंधन नहीं करने जा रही थी. कॉंग्रेस का समर्थन बाहर से होता. बड़ी बात तो यह थी कि जिसकी वजह से कॉंग्रेस हारी, उसे समर्थन देने तक के लिए राजी हो गई. शायद इसलिए कि दिल्ली को दोबारा चुनाव नहीं देखना पड़े, लेकिन आप ने इसे भी ठुकरा दिया.

 

अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी को चुनौती दी कि 2014 में बीजेपी क्या जोड़तोड़ कर सरकार नहीं बनाएगी? अरविंद शायद यह भूल गए कि करीब दो दशकों से इस देश की जनता ने किसी को भी पूर्ण बहुमत नहीं दिया. तो ऐसे में अगर राजनीतिक दल आपसी सहमति से सरकार न चलाते तो क्या दो दशकों से देश में राष्ट्रपति शासन नहीं लग रहा होता? क्या देश की जनता का पैसा कई बार चुनावों में जाया नहीं हुआ होता? क्या यह लोकतंत्र के साथ गलत नहीं होता? क्या गारंटी है कि दिल्ली में अगली बार आप या किसी और दल को बहुमत मिल ही जाएगा? तो क्या फिर आप इसी प्रकार से किसी से समर्थन नहीं लेगी और नहीं देगी की धुन रटेगी? क्या फिर दिल्ली की जनता का पैसा बर्बाद नहीं होगा? अपने वसूल और महत्वाकांक्षा अच्छी बात है, लेकिन वो जनता के पैसे की कीमत पर न हो. चाहे आप इसे कॉंग्रेस की राजनीति कह लें, पर कॉंग्रेस का आप को समर्थन देने के लिए राजी होना कहीं न कहीं दिल्ली को दोबारा चुनाव से बचाता ही. आप चाहती तो कॉंग्रेस से बाहर से समर्थन लेकर जनता से किए गए वादे पूरी कर पाती. उन्हें वादे पूरे करने से किसने रोका था? तो अब जनता से बड़ी उनकी तथाकथित नैतिकता हो गई?   

इसे ‘मोदी लहर’ कैसे मान लें?

  • यह शिवराज, रमण, वसुंधरा, डॉ. हर्षवर्धन की जीत है।
  • आम आदमी पार्टी ने जो किया, वो इतिहास में दर्ज होग।

पांच राज्यों में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में से 4 राज्यों के नतीजे आ चुके हैं. इन चार राज्यों में से बीजेपी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को अपने पास रखने में कामयाब रही है और राजस्थान कॉंग्रेस से छीना है. दिल्ली में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, लेकिन बहुमत हासिल नहीं कर पाई.

 

बीजेपी द्वारा इन चुनावों में पार्टी की सफलता का श्रेय बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को दिया जा रहा है. कहा जा रहा है कि देश भर में नरेंद्र मोदी के नाम की लहर है और इस विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है. कहा जा रहा है कि 2014 आम चुनाव में मोदी लहर पर सवार होकर बीजेपी दिल्ली की सत्ता पर काबिज होगी और मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे.

 

सभी पार्टियां अपनी तरफ से अलग अलग दावे करने के लिए स्वतंत्र हैं. नरेंद्र मोदी उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, लिहाजा राजनीतिक दृष्टि से यह ठीक भी है कि वे अब नरेंद्र मोदी के नाम पर माहौल बनाएं. लेकिन यह कहना कि ये विधानसभा चुनाव मोदी लहर की वजह से जीते, यह ठीक नहीं होगा. बीजेपी के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया कि अगर नरेंद्र मोदी के नाम की लहर नहीं होती, तो बीजेपी के ये नतीजे नहीं होते.

 

अब गौर करते हैं नतीजों पर. बीजेपी चार में से तीन जगहों पर सरकार बनाने जा रही है. दिल्ली, जहां भारतवर्ष के कोने-कोने से लोग आते हैं, वहां बीजेपी सरकार नहीं बना पाई और सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी बहुमत से दूर रही. अगर नरेंद्र मोदी की लहर थी, तो आखिर दिल्ली में बीजेपी बहुमत हासिल करने से चूक क्यों गई या फिर बीजेपी को विजय गोयल की जगह डॉ. हर्षवर्धन को उम्मीदवार क्यों बनाना पड़ा? छत्तीसगढ़ में यह आलेख लिखे जाने तक मतगणना जारी है और अंतिम नतीजे नहीं आए हैं, इसके बावजूद अभी तक के नतीजों के मुताबिक बीजेपी 39 सीटों पर जीत चुकी है, जबकि कॉंग्रेस ने 36 सीटों पर बाजी मारी है. 9 सीटों पर बीजेपी और 4 सीटों पर कॉंग्रेस आगे चल रही है. कहने का मतलब यह है कि छत्तीसगढ़ में काफी कांटे का मुकाबला रहा. छत्तीसगढ़ में सुबह से ही रुझान में कॉंग्रेस और बीजेपी के बीच मुकाबला चलता रहा. अंत में नतीजे बीजेपी के पक्ष में आते नजर आ रहे हैं. इस उठा-पटक से यह बात तो तय हुई कि छत्तीसगढ़ में भले ही बीजेपी सरकार बना ले, लेकिन उसके उम्मीदारों की कॉंग्रेस उम्मीदवारों पर जीत का अंतर काफी कम रहेगा. छत्तीसगढ़ वही राज्य है, जहां नरेंद्र मोदी ने 12 सभाएं कीं और 90 में से 38 विधानसभा क्षेत्रों तक पहुंचे.

 

दरअसल यह जीत नरेंद्र मोदी की नहीं या नरेंद्र मोदी की लहर की नहीं है. यह जीत मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की है, राजस्थान में वसुंधरा राजे की है और छत्तीसगढ़ में जनता के बीच ‘चौर वाले बाबा’ के नाम से मशहूर रमण सिंह की है. दिल्ली में अगर बीजेपी पहले स्थान पर आई, तो इसके पीछे मोदी की छवि नहीं, बल्कि डॉ. हर्षवर्धन की छवि रही होगी. बीजेपी के दिल्ली के बड़े नेता विजय गोयल को हटाकर डॉ. हर्षवर्धन को लाने की वजह शायद यही रही होगी. इसके अलावा जैसा कि पहले भी मैंने लिखा है कि 2014 में होने वाले आम चुनाव इस चुनाव से बेहद अलग होंगे और इनमें से ज्यातार राज्यों में बीजेपी ने 2003 में भी बढ़िया प्रदर्शन किया था और 2004 लोकसभा चुनाव में उसे दोहरा नहीं पाई थी. रही बात दिल्ली की, तो यहां आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन को न तो कॉंग्रेस आंक पाई थी, न बीजेपी और न पत्रकार. आप ने जो किया, वो इतिहास बन गया और इतिहास बनाने वाली घटना का सही आकलन कभी भी इतना आसान नहीं रहा है.

अपनी पहली परीक्षा में नरेंद्र मोदी पास होंगे या फेल?

चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे कल आने वाले हैं. इसके अलावा मिजोरम में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे सोमवार को आएंगे. कल जिन चार राज्यों में नतीजे आने हैं, उनमें मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली शामिल है. इन चार राज्यों में से 2 में जहां कॉंग्रेस की सरकार है, तो वहीं 2 में बीजेपी की सरकार है. बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के समर्थकों व उनकी पार्टी का मानना है कि इन चुनावों पर ‘मोदी लहर’ का असर होगा. मतलब अगर उनकी दृष्टि से देखा जाए, तो यह मोदी की परीक्षा है, जिसके नतीजा कल आना है. बड़ी बात यह है कि क्या मोदी अपनी पहली परीक्षा में सफल हो पाएंगे? क्या मोदी इन चार राज्यों में अपनी पार्टी को जीत का तोहफा दे पाएंगे? अगर दे पाए, तो जीत कितनी बड़ी होगी? इन तमाम सवालों के जवाब हमें कल दोपहर तक मिल जाएंगे, लेकिन मोदी का औसत प्रदर्शन तय लगता है.

बीजेपी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता पर पिछले दस सालों से काबिज है. इन दोनों राज्यों में उलटफेर हो सकता है और कॉंग्रेस को फायदा मिल सकता है. इसके बावजूद इन दोनों राज्यों में अगर बीजेपी जीत भी गई, तो भी पिछली बार के मुकाबले सीटें कम ही रहने का अनुमान है. साल 2008 में बीजेपी ने 230 सीटों वाली मध्यप्रदेश विधानसभा में 143 सीटें हासिल की थीं, तो वहीं 90 सीटों वाली छत्तीसगढ़ विधानसभा में बीजेपी की 50 सीटें थीं. राजस्थान में कॉंग्रेस की 200 में से 96 सीटें थीं और वहीं दिल्ली में त्रिकोणीय संघर्ष की वजह से स्थिति पहले ही बदली हुई है. ऐसे में अगर ‘मोदी लहर’ को माना जाए, तो मध्यप्रदेश में बीजेपी को कम से कम 150 सीटें जीतनी चाहिए और छत्तीसगढ़ में कम से कम 51 सीटें हासिल करनी चाहिए. दिल्ली में आम आदमी पार्टी के वजूद को नकारते हुए मोदी के प्रभाव में जनता को बीजेपी के हाथ में कम से कम 40 सीटें के साथ सत्ता सौंप देनी चाहिए. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है.

मोदी समर्थक यह कह सकते हैं कि आखिर हार का ठीकरा मोदी पर क्यों? इसका जवाब यह है कि आखिर जीत का सेहरा भी तो मोदी के सिर पर बांधा जाएगा. बीजेपी को शिवराज या रमण सिंह का काम याद नहीं रहा, उन्हें तो बस ‘मोदी लहर’ पर भरोसा है. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में 70 फीसदी से ज्यादा वोटिंग हुई है, क्या इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि जनता शिवराज और रमण सिंह से सत्ता छीनना चाहती हो. अक्सर ज्यादा वोटिंग सत्तारुढ़ दल के लिए परेशानी का कारण बनता रही है. दिल्ली में भी रिकॉर्ड 65 फीसदी वोटिंग हुई, लेकिन यहां आम आदमी पार्टी की वजह से समीकरण बदल गया है. यह भी संभव है कि शीला या कॉंग्रेस के वोट उसे मिल जाएं और आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच उन मतदाताओं के वोट बंटें, जो परिवर्तन देखना चाहते हों. इसके बावजूद अगर यह मान भी लें कि दिल्ली में शीला हार जाएंगेी, तो भी क्या बीजेपी बहुमत हासिल कर पाएगी? इसमें थोड़ा शक है. कुल मिलाकर बीजेपी को दिल्ली में भी ‘मोदी लहर’ का फायदा मिलता नहीं दिख रहा है.

नरेंद्र मोदी को बीजेपी द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद यह पहला मौका है, जब उनके तथाकथित ‘मोदी लहर’ को जनता परखेगी. नरेंद्र मोदी ने इसमें कोई कसर भी नहीं छोड़ी है. नरेंद्र मोदी ने कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और कॉंग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की तुलना में कहीं ज्यादा सभाएं की हैं. दिल्ली में भी मोदी ने ताबड़तोड़ सभाएं कीं. छत्तीसगढ़ भी मोदी गए, लेकिन जनता ने सभा में ‘चौर वाले बाबा’ के नाम से मशहूर रमण सिंह को ढूंढना शुरू कर दिया, लेकिन बीजेपी के लिए रमण सिंह या ‘चौर वाले बाबा’ महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि नरेंद्र मोदी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. ऐसे में देखना होगा कि क्या नरेंद्र मोदी शिवराज और रमण सिंह को पिछली बार के मुकाबले ज्यादा सीटें दिलवा पाएंगे? क्या नरेंद्र मोदी दिल्ली में डॉ. हर्षवर्धन को बहुमत दिलवा पाएंगे? क्या नरेंद्र मोदी राजस्थान में वसुंधरा को भारी बहुमत से सत्ता पर काबिज करा पाएंगे. राजस्थान में ‘भारी बहुमत’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं क्योंकि राजस्थान में अब तक यही रीति रही है कि वहां सत्तारुढ़ दल की हार होती रही है. ऐसे में अगर मोदी का जादू होगा, तो हार-जीत का अंतर भी तो बहुत बड़ा होना चाहिए. वैसे आम जनता के बीच लोकप्रिय अशोक गहलोत उलटफेर भी कर सकते हैं. वहीं दिल्ली में कॉंग्रेस ने जिस शीला दीक्षित पर भरोसा किया है, वो शीला चौथी बार परचम लहरा सकती हैं. बहरहाल नतीजे कुछ भी हों, पास या फेल तो नरेंद्र मोदी को ही होना है.

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यह तो ‘होम ग्राउंड’ था, असली मैच बाकी है

यह तो ‘होम ग्राउंड’ था, असली मैच बाकी है

 

चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के लिए एक्जिट पोल सामने आए हैं. एक्जिट पोल को फाइनल नतीजा नहीं माना जा सकता, इसके बावजूद अगर यह सच होता है, तो बीजेपी दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सरकार बनाती दिख रही है. इस एक्जिट पोल के आधार पर बीजेपी के नेता इस बात की घोषणा भी करने लग गए हैं कि अब 2014 में आम चुनाव भी उनके नाम होगा. लेकिन बीजेपी को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये चारों राज्य होम ग्राउंड के तरह थे, लेकिन 2014 में तो ‘विदेशी’ पिच पर भी खेलना होगा, ऐसी पिच पर जहां बीजेपी का कोई खास वजूद नहीं है.

 

दिल्ली में कुल 7 लोकसभा सीटें हैं, छत्तीसगढ़ में 11, मध्यप्रदेश में 29 और राजस्थान में 25. इन सीटों को अगर जोड़ दिया जाए, तो कुल 72 सीटें होती हैं. अब इनमें से कॉंग्रेस को विधानसभा चुनाव के एक्जिट पोल में मिली सीटों के हिसाब से बांटें, तो इन 72 सीटों में बीजेपी को ज्यादा से ज्यादा 37 सीटें मिल सकती हैं. इसके अलावा बीजेपी या एनडीए के घटक दल उत्तराखंड, बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, झारखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, यूपी और उत्तराखंड में बढ़िया सीट हासिल कर सकते हैं. इन सभी जगहों को मिला दें, तो कुल सीटें 268 होती हैं, इन राज्यों में बीएसपी, समाजवादी पार्टी तथा कॉंग्रेस जैसे दलों को आधी सीटें दें और बीजेपी को आधी भी दे दें, तो भी उनके पास 134 सीटें आएंगी। इसके अलावा ऑंध्रप्रदेश, असम, जम्मू-कश्मीर, केरल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित राज्यों को मिलाकर कुल 189 सीटों पर बीजेपी आज बहुत मजबूत नहीं है. यदि यह मान लिया जाए कि बीजेपी इन सीटों पर बेहतरीन पर्दर्शन करेगी और बीस प्रतिशत सीट ले आएगी, तो भी ज्यादा से ज्यादा बीजेपी या एनडीए को 40 सीटें आ पाएंगी. यानि अगर सारी सीट मिला दी जाए, तो भी बीजेपी को कुल 211 के आसपास का आंकड़ा ही हासिल कर पाएगी. वो भी तब जब हम बीजेपी के उस प्रदर्शन को आंक रहे हैं, जो एक्जिट पोल के मुताबिक वो इन चार राज्यों में कर रही है.

 

211 सीटों के साथ नरेंद्र मोदी अगर सरकार बनाना चाहें, तो मुश्किल है. एनडीए के बाहर से घटक दलों को जुटाना मोदी के लिए आसान नहीं होगा. ऐसी स्थिति में अभी जो चुनाव हुए हैं, उसे इसी प्रकार देखा जाना चाहिए, जैसे टीम इंडिया को होम पिच पर देखा जाता है. जब साउथ अफ्रीका की पिच पर मुकाबला होगा, तो स्थिति दूसरी होगी. कुल मिलाकर जो स्थिति बनती दिख रही है, उसके मुताबिक आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री बन पाना नरेंद्र मोदी के लिए संभव नहीं दिख रहा है. ऐसी स्थिति में बीजेपी को टीएमसी, बीएसपी, एआईएडीएमके, जेडीयू और बीजेडी जैसे दलों के सहयोग की जरूरत पड़ेगी. मौजूदा राजनीतिक स्थिति में जयललिता के अलावा वर्तमान एनडीए को और कहीं से समर्थन मिलता नहीं दिख रहा है. ऐसे में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को किसी दूसरे ‘स्वीकार्य’ नेता के लिए जगह खाली करनी होगी. क्योंकि इसके अलावा भी कुछ लोकसभा सीटें हैं, जहां बीजेपी मजबूत नहीं है.

 

राजनीति में इस हिसाब से न तो विश्लेषण होता है और न ही सीटें गिनी जाती हैं, इसके बावजूद अगर बीजेपी के नेताओं का दावा है कि यह लोकसभा चुनाव के नतीजों की झांकी है, तो उन्हें इसी आधार पर यह भी समझना होगा कि नरेंद्र मोदी की राह आसान नहीं है. होम ग्राउंड और विदेशी पिचों में फर्क होता है.

क्या समय पर आवाज उठाना जरूरी नहीं?

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस एके गांगुली पर एक महिला इंटर्न के साथ लगे छेड़खानी के आरोप के मामले में सुप्रीम कोर्ट की जांच समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक कर दी गई है. मेरी नजर में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की जांच एक संस्था की तौर पर की है, सर्वोच्च न्यायालय के तौर पर नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि अखबार की रिपोर्ट पर स्वतः संज्ञान लेते हुए हमने मामले की जांच की, लेकिन पाया कि घटना उस वक्त घटी, जब जस्टिस गांगुली रिटायर हो चुके थे और इंटर्न भी सुप्रीम कोर्ट से किसी भी प्रकार से जुड़ी हुई नहीं थी. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इस मामले में उसे कोई कार्रवाई नहीं करनी है. सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने कहा है कि पहली नजर में ‘पीड़ित का बयान’ इस बात को उजागर करता है कि जस्टिस गांगुली ने पीड़िता के साथ गलत बर्ताव किया. गौर करने की बात है कि सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने ‘पीड़िता के बयान’ के आधार पर यह कहा है. उपलब्ध आंशिक रिपोर्ट के मुताबिक अपनी जांच या पीड़ित या आरोपी के बयानों की तुलना को कमेटी ने आधार नहीं बनाया है और न ही बकौल तीसरा पक्ष केस पर कुछ कहा है. वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने खुद इस मामले में दिल्ली पुलिस को कोई निर्देश नहीं दिए और न ही पुलिस को कमेटी की रिपोर्ट भेजी. ऐसे में अब दिल्ली पुलिस गोवा पुलिस की तरह क्या जस्टिस गांगुली के खिलाफ एफआईआर दर्ज करेगी? यह बड़ा सवाल है. लेकिन इससे भी बड़ा सवाल है कि हम पढ़े-लिखे लोग क्या सामने आने में घबराते हैं?  

 

हाल फिलहाल में तीन घटनाओं ने लोगों को झकझोर कर रख दिया. पहला मामला आसाराम का था, जिसमें एक कम पढ़ी लिखी, नाबालिग और गरीब लड़की ने परेशानियों के बावजूद आसाराम के खिलाफ केस दर्ज करवाया. उस लड़की ने दिल्ली में आकर जीरो एफआईआर दर्ज करवाई, जबकि उसकी एफआईआर अन्य जगहों पर नहीं ली गई. उस लड़की के ऊपर काफी दबाव रहा होगा. आसाराम अपने आप में सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि समर्थकों की सेना भी उनके साथ थी. ऊपर से लड़की साधाराण पृष्ठभूमि से आती थी. लड़की के साथ जब कथित तौर पर गलत हुआ, तब वो सामने आई और अपने मां-बाप को यह बात बताई. मां-बाप ने भी उसका साथ दिया और बात एफआईआर तक पहुंची. उस मामले में ‘स्वतः संज्ञान एफआईआर’ शायद नहीं होता, अगर वह लड़की हिम्मत नहीं करती.

 

आसाराम वाले मामले के बाद दो मामले हमारे सामने आए. पहला मामला तहलका के एडिटर तरुण तेजपाल पर लगे आरोपों का था. तरुण तेजपाल पर बलात्कार का केस दर्ज हुआ है और तेजपाल फिलहाल गोवा पुलिस की कस्टडी में है. इस मामले में पीड़िता खुद एक पत्रकार थी और उन्होंने इस घटना की शिकायत अपने मैगजीन में तो की, लेकिन पुलिस के पास नहीं गई. बाद में जब उनका मेल बाहर आया और खबर मीडिया में आई, तब गोवा पुलिस ने खुद एफआईआर दर्ज की और फिर पीड़िता का बयान मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज कराया गया. यह संज्ञेय अपराध था, लिहाजा पुलिस का कदम सही था. लेकिन एक सवाल यह उठा कि पीड़िता ने पढ़े-लिखे व खुद पत्रकार रहते हुए भी सीधा रास्ता क्यों नहीं अख्तियार किया और सीधे पुलिस में एफआईआर दर्ज क्यों नहीं कराई?

 

ऐसा ही एक और मामला सामने आया, जब टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक ब्लॉग पर लिखी बात को बतौर खबर छापा. इस खबर के छपते ही सनसनी मच गई. ब्लॉग में एक महिला वकील ने आरोप लगाया था कि सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज ने उनके साथ गलत बर्ताव किया और यौन शोषण की कोशिश की. इस मामले में पीड़िता ने कोई शिकायत नहीं की और न ही कोई एफआईआर की, वो भी तब, जबकि वे खुद एक वकील हैं. इस खबर को पढ़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी गठित की और इसकी जांच शुरू की. इसके अलावा एटॉर्नी जनरल ने भी इस मामले को सुप्रीम कोर्ट के सामने उठाया था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने अपनी रिपोर्ट चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को सौंपी और वो अब सार्वजनिक कर दी गई है. यह जांच एक संस्था की तरह की गई और पाया कि पीड़िता या आरोपी कोई भी घटना के वक्त संस्था से जुड़ा नहीं था, लिहाजा कार्रवाई की कोई जरूरत नहीं थी. बहरहाल इस मामले में दिल्ली पुलिस कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र है. संज्ञेय अपराध है और वो चाहे तो एफआईआर दर्ज कर सकती है.  

 

इन तीनों मामलों को देखने के बाद यह कहना जरूरी समझता हूं कि पीड़िता के ऊपर तमाम दबाव के होने के बावजूद उन्हें समय पर सामने आना चाहिए था, जैसा कि आसाराम के मामले में हुआ. ऐसे में न केवल पुलिस को साक्ष्य जुटाने में सहूलियत होती, बल्कि अगर आरोपों को सही माना जाए, तो अन्य महिलाओं को भी ऐसे लोगों का शिकार होने से रोका जा सकता है. बहरहाल यह कोर्ट तय करेगा कि इन तीनों मामलों में आरोप साबित होते हैं या नहीं. तरुण तेजपाल और जस्टिस गांगुली के मामले बिल्कुल नए हैं, जबकि आसाराम के मामले में कोर्ट ने चार्जशीट पर संज्ञान ले लिया है. इस आलेख को लिखने के पीछे यह कहने का मकसद बिल्कुल नहीं है कि ये आरोप गलत हैं, यह तो कोर्ट को तय करना है, यहां यह कहने का मकसद है कि मामलों को सही समय पर और सही जगह पर उजागर करना भी जरूरी है, ताकि अन्य लोगों को भी ऐसी संभावित घटनाओं से बचाया जा सके और पुलिस को जल्द कार्रवाई करने में मदद की जा सके. इसका यह भी मतलब नहीं कि कोई सच उजागर ही न करे.

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