‘चाणक्य’ की उपेक्षा!

जब-जब हम किसी विद्वान की उपेक्षा करते हैं, तब तब देश की हानि होती है। हमें राजनीति से परे जाकर ऐसे लोगों को सहेज कर रखना होता है, जिनकी देश को जरूरत होती है। वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था आंकड़ों में भले ही बेहतर दिख रही है, लेकिन जमीन पर कुछ और ही नज़र आता है। ऐसे समय में आरबीआई के रघुराम राजन का यह बयान कि वे इसी साल सितंबर में कार्यकाल ख़त्म होने के बाद पद से हट जाएंगे, चिंताजनक है। ये सब जिस परिस्थितियों में हुआ वह दुखदाई भी है। खासकर तब, जब रिज़र्व बैंक के अपने सहयोगियों को लिखी चिट्ठी में रघुराम राजन ने साफ़ कहा है कि वो गवर्नर बने रहने के लिए ‘तैयार’ थे लेकिन ‘गहन चिंतन और सरकार से चर्चा’ के बाद उन्होंने ये क़दम उठाया है।

हाल ही में बीजेपी के राज्यसभा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने रघुराम राजन की आलोचना की थी और खुलकर उनपर निराधार आरोप लगाये थे। उन्होंने तो रघुराम राजन को भारत के लिए गैर जरुरी और अमेरिकी हितों का रक्षक तक करार दे दिया था। स्वामी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा था कि उन्हें गवर्नर के रूप में दूसरा कार्यकाल ना दें। ये सब तब हुआ जब देश ही नहीं दुनिया रघुराम राजन का लोहा मानती है। रघुराम राजन उन गिने चुने अर्थशास्त्रियों में से थे, जिन्होंने 2008 के वैश्विक आर्थिक मंदी की भविष्यवाणी कर दी थी और अमेरिका के कई स्वनामधन्य विद्वानों ने रघुराम को सिरे से नकार दिया था। इतना ही नहीं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रयासों से जब वे आरबीआई से जुड़े उसके बाद भी भारतीय अर्थजगत को संभालने में उनके योगदान के लिए उनकी तारीफ़ की जाती है।

बहरहाल, रघुराम ने अपने संदेश में कहा है कि 4 सितंबर 2016 को अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद वे शिक्षण के क्षेत्र में लौट जाएंगे। हालांकि उन्होंने कहा कि जब भी देश को उनकी सेवा की जरूरत होगी, वो इसके लिए तैयार रहेंगे।

रघुराम राजन को लेकर सरकार के प्रति लोगों ने सोशल मीडिया पर खूब भड़ास भी निकाली। किसी ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा ‘रघुराम राजन का फ़ैसला, नहीं लेंगे दूसरा टर्म। क्रिकेटर चेतन चौहान को नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ैशन टेक्नोलॉजी का हेड बनाने के बाद सरकार के पास प्रियंका चोपड़ा को आरबीआई गवर्नर बनाने का सुनहरा मौक़ा … !’

रघुराम राजन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख अर्थशास्त्री भी रह चुके हैं और अब तक इस पद पर पहुंचने वाले सबसे युवा भी। इससे पहले वे शिकागो यूनिवर्सिटी के बूथ स्कूल ऑफ बिज़नेस में पढ़ाते थे। कोई दो मत नहीं कि आज स्वामी के आरोप रघुराम के कामकाज पर भारी पड़े। पर हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि किसी ‘चाणक्य’ की उपेक्षा हमें भारी ही पड़ेगी। वर्तमान सरकार से ‘राज’नीति नहीं ‘देश’नीति की उम्मीद है।