किसे चुनेंगे आप, लोकतंत्र या राजतंत्र?

आम आदमी पार्टी जब अस्तित्व में आई थी तब दिल्ली की जनता को बीजेपी और कॉंग्रेस से इतर एक और विकल्प मिला था। कुछ लोग आम आदमी पार्टी की विचारधारा से सहमत थे, तो कुछ लोग इसे ढोंग मानते थे। साल 2003 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे अप्रत्याशित थे। नतीजे से पहले दिल्ली की जनता के अलावा सबको लग रहा था कि आम आदमी पार्टी कुछ खास नहीं कर पाएगी, लेकिन पार्टी अपने पहले ही टेस्ट में पास हुई थी। अब साल 2015 में जो कुछ हुआ इसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। साल 2014 के आम चुनाव में शुरू हुई नरेंद्र मोदी की लहर को आम आदमी पार्टी की दीवार ने दिल्ली में रोक दिया और बीजेपी 70 सीटों वाली विधानसभा में सिर्फ 3 सीटों पर सिमटकर रह गई, जबकि कॉंग्रेस का सूपड़ा ही साफ हो गया। अब आम आदमी पार्टी दिल्ली की नंबर वन पार्टी बन गई थी। लोगों को भरोसा हो गया था कि आम आदमी पार्टी लीक से हटकर है। पार्टी पूरी तरह से पारदर्शी और लोकतांत्रिक नजर आ रही थी। कॉंग्रेस ने दिल्ली में शीला दीक्षित के नेतृत्व में एक अच्छा शासन दिया था। इसके बावजूद यह समझने में किसी को भी दिक्कत नहीं आ रही थी कि कॉंग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र सिर्फ नाम के लिए है और पार्टी में वही होता आ रहा है, जो गांधी परिवार चाहता है। कॉंग्रेसी इसे आलाकमान कहते हैं। जिस पार्टी में आलाकमान का मतलब सिर्फ एक या दो लोग हों, उसमें लोकतंत्र की तलाश करना समय जाया करना है। बीजेपी में आंतरिक लोकतंत्र रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो निःसंदेह एक चाय बेचने वाला व्यक्ति कभी भी देश का प्रधानमंत्री नहीं बन पाता और वो भी पार्टी के वरिष्टतम नेता लालकृष्ण आडवाणी की राय के विरुद्ध। उस लालकृष्ण आडवाणी के विरुद्ध, जिन्होंने इस पार्टी को खड़ा किया था। इसका मतलब साफ है कि पार्टी में कार्यकर्ताओं का मत किसी खास व्यक्ति के मत से कहीं ज्यादा महत्व रखता रहा है। हालांकि आम आदमी पार्टी और कॉंग्रेस यह कहती रही है कि बीजेपी का लोकतंत्र सिर्फ दिखावा है और वही होता है जो आरएसएस चाहता है। बीजेपी का कहना रहा है कि आरएसएस सिर्फ मार्गदर्शन करता रहा है, हस्तक्षेप नहीं। खैर, दिल्ली के लोगों को आम आदमी पार्टी कहीं बेहतर नजर आ रही थी। आम आदमी पार्टी में भी आंतरिक लोकतंत्र था। एक लोकपाल भी था। पार्टी बीजेपी से ज्यादा पारदर्शी भी नजर आ रही थी। शायद आम आदमी पार्टी के सिद्धांत और आउटलुक की वजह से ही पार्टी जीती थी क्योंकि पार्टी को शासन का तो कोई खास अनुभव था ही नहीं और एक बार जब सत्तासीन होने का मौका मिला भी था, तब पार्टी के शीर्ष नेता ने मैदान छोड़ दिया था। अब जबकि आम आदमी पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की हकीकत सामने आ चुकी है और इस पर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं, लोग इस पार्टी को अलग नजरिए से देख सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि आम आदमी पार्टी अब सिर्फ अरविंद केजरीवाल की पार्टी होकर रह गई है। इस पार्टी में अरविंद केजरीवाल की मर्जी के बगैर कुछ नहीं हो सकता है। कुछ उसी प्रकार जैसे कॉंग्रेस में गांधी परिवार की मर्जी के बगैर कुछ नहीं हो सकता। अगर पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की बात करें तो मौजूदा परिस्थिति में आम आदमी पार्टी और कॉंग्रेस की तुलना में बीजेपी का पलड़ा भारी नजर आता है। बीजेपी में भले ही आरएसएस का हस्तक्षेप भी रहा है, लेकिन आरएसएस भी किसी एक व्यक्ति का नाम नहीं है। आरएसएस भी एक संगठन है, जिसमें कई लोगों की राय होती है। आरएसएस का देशभर में फैला विस्तृत नेटवर्क बीजेपी कार्यकर्ताओं को मन को टटोलता है और फिर इससे बीजेपी को अवगत कराता रहता है। कुल मिलाकर देखें तो कॉंग्रेस और आम आदमी पार्टी की तरह बीजेपी में किसी एक व्यक्ति की नहीं चलती। बीजेपी के आलोचक कहते हैं कि पार्टी में वही होता है, जो नरेंद्र मोदी कहते हैं। पर आलोचक तो एक समय में कहा करते थे कि पार्टी में वही होता है जो अटल और आडवाणी कहा करते हैं। मतलब साफ है कि जिस पार्टी में आडवाणी जैसे बड़े नेता को साइडलाइन करने का बड़ा फैसला लिया जा सकता है, उसमें कभी किसी कदम पर नरेंद्र मोदी को लेकर भी वैसा ही फैसला किया जा सकता है। पार्टी के कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं पर जब तक नरेंद्र मोदी खरे उतरते रहेंगे और जब तक उन्हें उन कार्यकर्ताओं का समर्थन प्राप्त रहेगा, तभी तक वे शीर्ष स्तर पर कायम रहेंगे। वैसे भी नरेंद्र मोदी केजरीवाल की तरह पार्टी और सत्ता दोनों जगहों पर शीर्ष पर नहीं हैं। वे अगर प्रधानमंत्री हैं, तो बीजेपी अध्यक्ष कोई और है, जबकि आम आदमी पार्टी में अरविंद केजरीवाल ही सबकुछ हैं। प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की बातों से भले ही कुछ लोग इत्तेफाक नहीं रखें, पर साफ है कि इतना तो वे देख पा रहे होंगे कि आम आदमी पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो चुका है और पार्टी कई क्षेत्रीय दलों की तरह एक व्यक्ति की पार्टी बनकर रह गई है। ऐसे में कम सम कम पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र के मामले में तो बीजेपी अब निर्विवादित तौर पर आम आदमी पार्टी और कॉंग्रेस से कहीं आगे दिखाई दे रही है। एक लोकतांत्रिक देश की जनता के लिए यह बात जरूर महत्व रखनी चाहिए कि वे जिस राजनीतिक पार्टी का समर्थन करते हैं क्या उसके अंदर आंतरिक लोकतंत्र है? क्या उसका कोई आम कार्यकर्ता पार्टी का अध्यक्ष या फिर देश का प्रधानमंत्री या किसी राज्य का मुख्यमंत्री बन सकता है? अगर नहीं, तो फिर साफ है कि हमें एक बार सोचना चाहिए कि हम लोकतंत्र का समर्थन करना चाहते हैं या फिर लोकतंत्र की तरह दिखने वाले राजतंत्र का।