हमराही

हर्र…हुट…हुट…. उस शाम झुंड से अलग हटकर दूसरे के खेत में फसल खाने घुस गई चार गायों को संभालने में उदित और मनोहर परेशान हुए जा रहे थे। दोनों दोस्त पढ़ाई में बेहद होशियार थे और अपने अपने किसान पिता की मदद भी उतनी ही किया करते थे। गर्मी के मौसम में स्कूल सुबह 10 बजे की जगह 7 बजे लगता था। रोज सुबह स्कूल जाने से पहले वे अपनी अपनी गायों को चारा डालकर जाते थे और दोपहर में घर आने के बाद उन्हें अपने हाथों से पानी भी पिलाते थे। करीब 3-4 बजे दोनों दोस्त अपनी अपनी गायों को लेकर पास के बहियार में चले जाते थे। शाम में घर आने के बाद भी दोनों साथ पढ़ाई करते थे। कभी उदित मनोहर के घर आ जाता था तो कभी मनोहर उदित के घर। उस शाम उन्हें घर वापस लौटने में थोड़ी देरी हो गई थी। गायों ने बड़ा परेशान किया था। पास के हरि काका के खेत में घुसकर थोड़ी फसल खराब कर दी थी। आज शाम उदित की बारी थी, उसे मनोहर के घर जाकर पढ़ाई करनी थी। उदित की मां सुषमा ने सांझ दिया और इसके बाद हल्का फुल्का नाश्ता करके उदित मनोहर के घर चला गया। उस शाम मनोहर के घर पर रौनक नहीं थी। थोड़ा सन्नाटा था। मनोहर अन्य दिनों की तरह लालटेन लेकर पढ़ने तो बैठ गया था, लेकिन उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। उदित को देखने के बावजूद भी उसमें उत्साह का संचार नहीं हुआ था। उदित ने पूछा तो पता चला कि मनोहर के मामा आए हैं और उसे लेकर धनबाद जाएंगे। मनोहर अब वहीं पढ़ेगा। उसके मामा धनबाद में शिक्षक थे और मनोहर को वहीं पढ़ाना चाहते थे। मनोहर के मां-पापा की भी इसमें सहमति थी। उन्हें पता था कि उनका बेटा पढ़ाई में होशियार है और गिरीडीह के उनके गांव पथरिया में पढ़ाई की कोई खास सुविधा उपलब्ध नहीं है। यह खबर सुनकर जितना मनोहर को सदमा लगा था, उतना ही उदित को। दोनों दोस्त कभी भी अलग नहीं रहते थे। मनोहर को कल सुबह ही धनबाद जाना था। यह सबकुछ पहले ही तय हो चुका था। मनोहर से यह बात छिपाई गई थी ताकि वो ज्यादा विरोध न कर पाए। उस रात उदित वहीं सो गया था। उदित के मां-पापा को भी इस बात की जानकारी हो गई थी। सुबह मनोहर की मां ने आकर दोनों को जगाया। दोनों आंखें मूंदकर लेटे रहे, जैसे आंख नहीं खोलेंगे तो सुबह नहीं होगी। उदित सोच रहा था कि आज मनोहर चला जाएगा, पता नहीं कितने महीने बाद आएगा और वो भी कुछ दिनों के लिए। वो मनोहर के बिना कैसे रह पाएगा। मनोहर की भी हालत कुछ ऐसी ही थी। खैर, मनोहर को आज जाना था और रिक्शावाला भी आज आधे घंटे पहले ही आ गया था। दोनों उस वक्त छठी कक्षा में पढ़ते थे और उन्हीं दोनों में से कोई एक कक्षा में अव्वल आता था। दिक्कत यही थी कि उनके गांव में जो स्कूल था उसमें सिर्फ आठवीं तक की पढ़ाई होती थी और गांव के ज्यादातर बच्चे उसके बाद पढ़ाई छोड़ देते थे। शुरू में मनोहर के मां-बाप भी उसे दूर नहीं करना चाहते थे, लेकिन मनोहर के मामा समझदार थे और बड़ी जिद करके अपनी बहन और बहनोई को मनाने में सफल हो पाए थे। उदित का कोई करीबी रिश्तेदार पढ़ा लिखा नहीं था और ज्यादातर रिश्तेदार ऐसे गांवों में ही रहते थे, जहां पथरिया की ही तरह पढ़ाई की सुविधा नहीं थी। देखते ही देखते वो पल भी आ गया था जब दोनों दोस्तों को अलग होना था। सुबह 11 बजे की बस पकड़नी थी और रिक्शे से पास के कस्बे के बस स्टैंड तक जाने में लगभग 1 घंटा लगता था। मनोहर रिक्शे पर तो बैठ गया था, लेकिन शायद उसकी आत्मा उदित के पास रह गई थी। कुछ उसी प्रकार उदित की आत्मा मानो मनोहर के साथ धनबाद चली जा रही थी। जीवन किसी के बिना नहीं ठहरता। धीरे धीरे तीन साल बीत गए मनोहर धनबाद के जिला स्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ रहा था, जबकि उदित की पढ़ाई आठवीं के बाद ही छूट गई थी। मनोहर अब छुट्टियों में भी कम ही आता था। उदित ने घर का काम काज पूरी तरह से संभालना शुरू कर दिया था। उसकी बहन उमा की शादी इसी महीने होने वाली थी। उमा की शादी के लिए पैसे जुटाने थे। लड़के वालों ने एक लाख रुपए मांगे थे। उमा की शादी अच्छे लड़के से करानी थी। लड़का संपन्न था। दस बीघे जमीन थी और मां सरकारी स्कूल में चपरासी थी। अब उदित के पिता हरिवंश के पास गांव में रहने वाले कारू साहूकार के पास जाने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा था। कारू से 5 प्रतिशत मासिक ब्याज दर पर 50 हजार रुपए मिल गए। किसी तरह से शादी संपन्न हुई। मनोहर को उसके मामा ने शादी में नहीं आने दिया क्योंकि दस दिनों बाद उसकी परीक्षा थी। मनोहर उमा को अपनी बहन की तरह मानता था। मनोहर अकेला भाई था। उसके लिए उमा ही बहन थी और उदित ही उसका भाई था। उदित को यह बुरा लगा था कि उमा की शादी में मनोहर नहीं आया था। इधर, शादी तो ठीक से संपन्न हो गई, लेकिन उदित व उसके परिवार के लिए सूद की रकम चुकाना टेढ़ी खीर थी। पहले महीने ही सूद की रकम में 500 रुपए कम पड़ गए। कारू नाराज हो गया और गुस्से में उदित के पिता को गालियां देने लगा। उदित को गुस्सा आ गया और उसने पत्थर का एक टुकड़ा कारू की ओर दे मारा। इससे नाराज कारू ने अपने नौकरों से कहकर उदित की जमकर धुनाई करा दी। उन दिनों शहर से कोई शनत दा आए थे और लोगों को उनके अधिकारों की बात बताते थे। यह बात शनत दा को पता चली तो वे उदित के घर पहुंचे और उन्हें सूद की रकम देने से मना करने लगे। शनत दा ने कहा कि किसी प्रकार 50 हजार रुपए चुका दो, लेकिन सूद की रकम नहीं देनी है। उदित के पिता इससे सहमत नहीं थे, लेकिन उदित को शनत दा की बात जंच रही थी। वो दूसरी सुबह शनत दा के साथ कारू के घर गया और दो टूक शब्दों में कह दिया कि वो सूद की रकम अब नहीं भरेगा और दो साल के भीतर भीतर उसका मूल धन चुका देगा। कारू ने इसका विरोध किया तो शनत दा के साथ मौजूद कुछ लोगों ने कारू की धुनाई कर दी। कारू के नौकर लाठी लेकर निकले तो शनत दा के साथ मौजूद लोगों ने अपनी कमर में खोसा देसी कट्टा निकाल लिया और कहा कि अपना पैसा भूल जाओ। शनत दा नक्सली नेता थे। उदित को यह सब बातें नहीं पता थीं। उसे तो बस पता था कि शनत दा गरीबों के मसीहा हैं। घरवालों की नाराजगी के बावजूद अब उदित रोज शनत दा से मिलने लगा और उनके कहे के मुताबिक उसने ‘इंसाफ की मसाल’ अपने हाथों में थाम ली थी। उसे लगा था कि गांव में वो गरीबों की आवाज बन पाएगा। एक दिन अचानक शनत दा ने उसे रात को जगाया और गिरीडीह-धनबाद रोड पर साथ चलने को कहा। उदित उनकी टोली के साथ हो लिया। उदित आज भी उस खौफनाक रात को भूल नहीं पाया था। उस रात शनत दा व उनकी टोली ने सड़क पर गुजर रही एक बस में लूटपाट की थी और विरोध करने पर एक व्यक्ति की हत्या भी कर दी थी। इस घटना से दुखी उदित ने उस वक्त तो कुछ नहीं कहा था, लेकिन वापस आने के बाद शनत दा से सवाल पूछा था। उदित ने पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? शनत दा ने उदित से कहा कि अमीरों को लूटकर गरीबों में बांटना कोई गलत काम नहीं है और इसके रास्ते में आने वाले लोगों को हटाने में भी कोई बुराई नहीं है। आठवीं पास उदित के किशोर मन को शनत दा ने कुछ इस कदर अपने वश में कर लिया था कि उस दिन से उदित शनत दा का होकर रह गया। दस दिनों बाद फिर से लूटपाट की गई और उदित ने इसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था। शनत दा उदित के काम से खुश हुए थे। गठीले बदन वाला, फुर्तीला उदित अकेले ही कई लोगों पर भारी पड़ा था। उदित को नहीं पता था कि शनत दा ने उन लूटे हुए पैसों का क्या किया। लेकिन उसे इतना पता था कि ये पैसे किसी गरीब की भलाई में लगेंगे। उदित अब न केवल शनत दा का खास हो गया था, बल्कि हथियार चलाने की ट्रेनिंग लेने पास के जंगल में चल रहे कैंप में भी जाया करता था। देखते देखते सात साल बीत गए। उदित अब एरिया कमांडर बन गया था और शनत दा के पास अब पूरे झारखंड की जिम्मेदारी थी। उधर, मनोहर स्टेट बैंक में पीओ बन गया था और वाराणसी में पोस्टेड था। उदित क्या कर रहा है, इसकी जानकारी उसके गांव में तो क्या उसके पिता को भी नहीं थी। उदित पिछले छह साल से गांव नहीं आया था। आखिरी बार वो तब गांव आया था, जब उसकी मां की मौत हुई थी। घर में पिता अकेले थे, लेकिन उदित को तो गरीबों की चिंता थी। एक बार कुछ पुलिसवाले आए थे और उदित के बारे में उसके पिता से पूछताछ की थी, लेकिन उदित के पिता को आज तक नहीं पता था कि आखिर पुलिस ने उदित के बारे में जानकारी क्यों मांगी थी। मनोहर को भी नहीं पता था कि उदित कहां है और क्या कर रहा है। पथरिया गांव में दशहरा बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता था। मनोहर कई सालों से दशहरा में अपने गांव नहीं गया था। इस बार उसने तय किया था कि वो छुट्टी लेकर दशहरा में अपने गांव जाएगा। उदित का तो पता नहीं था, लेकिन उदित की बहन उमा से उसकी फोन पर बात होती थी। उमा भी इस बार दशहरा में अपने मायके आ रही थी। उदित की मां को गुजरे छह साल बीत चुके थे लेकिन उसके बाद उदित कभी अपने पिता हरिवंश का हाल चाल जानने भी गांव नहीं आया था। हर महीने किसी न किसी नई जगह से एक हजार रुपए मनिऑर्डर भेज दिया करता था। उसके पिता उस एक हजार रुपए को अपने ऊपर खर्च नहीं करते थे, बल्कि गांव के चार बच्चों को पढ़ाई के लिए यही पैसे दे दिया करते थे। उन्हें इस बात का गुस्सा था कि उदित उनसे मिलने भी नहीं आता, लेकिन इस बात की खुशी भी थी कि उनका बेटा बढ़िया कमा रहा था और हर महीने उन्हें पैसे भेज दिया करता था। उनकी जीविका तो थोड़ी सी जमीन पर खेती करके चल जाया करती थी, सो वे उदित द्वारा भेजे गए पैसे को गरीब बच्चों की पढ़ाई में लगा दिया करते थे। उन्हें पता था कि उनका उदित होनहार छात्र रहा था और पैसों की कमी की वजह से आठवीं से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाया था। उदित गरीबों की सेवा के लिए नक्सली बना था, लेकिन आज तक उसने गरीबों के लिए खुद कुछ नहीं किया था। सारे पैसे शनत दा को भेजे जाते थे। शनत दा न जाने कौन से गरीब की सेवा करते थे। पर उदित को उन पर पूरा भरोसा था। वहीं, मनोहर भी हरिवंश की ही तरह गांव के चार बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाता था। दुर्गा पूजा की अष्टमी तिथि को एक बार फिर से उदित ने लूटपाट की योजना बनाई थी। उसने शनत दा से सुन रखा था कि अष्टमी तिथि को अपना काम जरूर करना चाहिए, इससे काम सिद्ध होता है। पता नहीं यह कैसी मान्यता थी? अत्याचारी महिषासुर को मारने वाली मां दुर्गा भला ऐसे कामों का क्या कोई मीठा फल देती? उदित ने पिछले साल दुर्गा पूजा की अष्टमी तिथि को भी धनबाद-पटना पैसेंजर ट्रेन में लूटपाट की थी और विरोध करने पर एक महिला की भी हत्या कर दी थी। वो अपने गले से सोने की चेन निकालने नहीं दे रही थी। आज अष्टमी की रात थी। तय योजना के मुताबिक उदित अपने सशस्त्र सहयोगियों के साथ गिरीडीह-धनबाद सड़क पर एक सुनसान जगह पर खड़ा था। उन्होंने सड़क पर कोलतार के ड्रम रख दिए थे। रात के 11.30 बजे धनबाद से देवघर जा रही बस वहां से गुजर रही थी। इस बस में पिछले 12 सालों में 5 बार लूटपाट हो चुकी थी, लेकिन पता नहीं क्यों स्थानीय प्रशासन और बस मालिक ने इसे नियति मान लिया था और बस के समय में परिवर्तन कराने की भी जरूरत नहीं समझी थी। बस ड्राइवर हरमू ने जैसे ही बीच सड़क पर पड़े कोलतार के ड्रमों को देखा वो बस को रोकने के लिए ब्रेक पर लगभग चढ़ गया। उसे शक हो गया था कि कुछ गड़बड़ है। बस के रुकते ही कुछ हथियारबंद लोगों ने बस को घेर लिया। सभी के चेहरे काले कपड़े से ढंके हुए थे, सिर्फ आंखें नजर आ रही थीं। बस में बैठे सभी लोगों ने हथियारबंद लोगों के कहने पर अपने कीमती सामान देने शुरू कर दिए। उसमें से कुछ गरीब मजदूर भी थे, जिन्होंने बड़ी मुश्किल से साल भर बाहर रहकर कुछ पैसे इकट्ठा किए थे और अब त्योहार में अपने अपने गांव जा रहे थे। खैर नक्सलियों को इससे क्या? उन्हें तो ‘गरीबों’ की सेवा करनी थी। पता नहीं वो कौन से गरीब थे और इन गरीबों से कैसे अलग थे? बस में बैठे एक युवक ने अचानक इस लूटपाट का विरोध करना शुरू कर दिया। उस युवक को हथियारबंद नक्सलियों ने जमकर पीटा और घसीटते हुए बस के नीचे उतारकर उदित के सामने लाकर पटक दिया। उदित के सामने औंधे मुंह पड़ा वह युवक दर्द से कराह रहा था। उदित ने अपना पैर उस युवक की पीठ पर रख दिया और बंदूक की बट से उसके कंधे पर जोर से मारा। वह युवक भी डील डौल में उदित की ही तरह था, लेकिन वो अकेला था। उसकी सांसें तेज हो गई थीं। उसने टूटते हुए स्वरों में कहा कि यह काम ठीक नहीं है। मेहनत करके कमाओ, लूटकर नहीं। उदित ने उस युवक को डांटते हुए कहा कि हम पैसों के लिए तुम्हें नहीं लूटते। हम नक्सली हैं और तुम अमीरों को लूटकर गरीबों की सेवा करते हैं। उदित अब और ज्यादा बातचीत के मूड में नहीं था। उसने बंदूक की नाल उस युवक की पीठ की ओर मोड़ दी, लेकिन उदित किसी की पीठ पर वार नहीं करता था। वह खुद को बहादुर समझता था। लेकिन पता नहीं तब उसकी बहादुरी कहां चली जाती थी, जब वो एक निहत्थे पर वार करता था? आज शायद जमीन पर पड़े युवक से उसने दो दो हाथ किए होते तो मुंह की खाई होती। खैर, उसने उस युवक को जोर की लात मारी और धक्का देकर सीधा किया। बस की हेडलाइट ऑन थी और उसकी रोशनी अब सीधे उस युवक के चेहरे पर पड़ रही थी। उदित के हाथ अचानक कांपने लगे थे। बंदूक हाथ से छूटकर गिर गई। उदित नीचे बैठ गया और उस युवक का सिर अपनी गोद में ले लिया। उस युवक की आंखें बंद थीं। उदित के साथी अपने सरदार की इस हरकत पर हैरान थे। किसी को मारना उदित के बाएं हाथ का खेल था और आज पता नहीं उसे क्या हो गया था। क्यों वो उस युवक का सिर अपनी गोद में रखकर उसके चेहरे पर पानी छिड़क रहा था? ठंडी हवा चल रही थी, उदित न जाने कब का बेनकाब हो चुका था। इस मौसम में उदित के चेहरे पर इस कदर पसीना नजर आ रहा था, जैसे जेठ की दोपहरी हो। उस युवक को होश आ चुका था। इससे पहले वो उदित को देख पाता, उदित ने उसे सीने से लगा लिया और भर्राई आवाज में पुकारा मनोहर…..। मनोहर अगर पचास साल बाद भी उदित की आवाज सुनता तो उसे पहचान जाता। वो युवक मनोहर था। उदित के बचपन का दोस्त। उदित की ही तरह गरीब था वो, पढ़ाई तक के पैसे नहीं थे उसके पास। उसने मेहनत से ये मुकाम हासिल किया था। किसी को लूटकर अमीर नहीं बना था। मनोहर इसी बस में सवार होकर अपने गांव जा रहा था और आगे गिरीडीह में उसे उतरना था। मनोहर पढ़ा लिखा और समझदार था। पलक झपकते ही वो समझ गया कि उसका दोस्त उदित भटक चुका है। उदित के इस रूप को देखकर वो परेशान हो उठा था। उधर, उदित की आंखों के सामने मानो बीता हुआ पल जीवंत हो उठा था। वो ख्यालों में डूब गया था और वहीं रहना चाह रहा था। वो कहां से कहां आ गया था। उसे आज वो शाम याद आ गई थी…हुर्र….हट….हट….वो फिर से मनोहर के साथ गायें चराना चाहता था। मनोहर समझ गया था कि उदित व उसके साथ आए साथियों को कुछ लोगों ने बरगलाया है। उदित को भी समझ में आने लगा था कि उसने न जाने मनोहर जैसे कितने बेगुनाहों को ऐसा अमीर समझकर मौत के घाट उतार दिया था, जो गरीबों की छाती पर मूंग दलकर पैसा कमाते हैं। उदित को यकीन होने लगा था कि उसने न्याय के नाम पर घोर अन्याय किया था। उदित को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। मानो वो सीधे आसमान से जमीन पर गिर पड़ा था। उसके सारे सिद्धांत, मान्यता, विचार, आस्था मटियामेट हो चुके थे। मनोहर ने उदित को रास्ता दिखाया और आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया। बड़ी मुश्किल से उदित अपने साथियों को मना पाया और अगले दिन पूरे दल के साथ गिरीडीह में एसपी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उदित को अपने किए पर पछतावा था। उसके द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर शनत दा को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। उदित के सहयोग से पुलिस ने उस इलाके के पूरे नक्सली नेटवर्क को तोड़ दिया। 5 साल बाद सरकार की नीति के मुताबिक उदित व उसके कुछ साथियों को नया जीवन शुरू करने का मौका मिला। उदित अब गांव वापस आ गया था। अब पथरिया में बढ़िया स्कूल भी खुल गया था। मनोहर ने नौकरी छोड़ने के बाद यह स्कूल खोला था। स्कूल का नाम यूएम हाई स्कूल था। उदित मनोहर हाई स्कूल। उदित को सरकार की तरफ से पुनर्वास के लिए जो पैसे मिले थे, उससे वो अब गरीबों की मदद करता था। गांव में अब कारू की सूदखोरी का धंधा खत्म हो चुका था। हरिवंश को बुढ़ापे का सहारा मिल गया था। नक्सली बनकर उदित जो नहीं कर पाया था, वो अब कर रहा था। उसके दोस्त मनोहर ने उसे गांव व गरीबों की सेवा का मतलब समझा दिया था।

छुटकी (कहानी)

पापा की छुटकी अब बड़ी हो गई थी। उसे अपने फैसले लेने का अधिकार था। वो जिससे शादी करना चाहती थी, वो अनुपम किसी और जाति का था और यह बात छुटकी के पापा विश्वंभर को पसंद नहीं थी। इस बात को लेकर घर में पिछले कुछ दिनों से तनाव का माहौल था। विश्वंभर ने साफ कर दिया था कि उनकी छुटकी किसी भी हालत में अनुपम से शादी नहीं करेगी, जबकि छुटकी ने निश्चय कर लिया था कि वो अगर शादी करेगी तो अनुपम से ही करेगी। छुटकी की मां सावित्री भी इस मामले में उसके पिता विश्वंभर के साथ खड़ी थी। बिहार के बांका में रहने वाली छुटकी के पिता का अपना अच्छा खासा व्यवसाय था। छुटकी पढ़ाई में काफी अच्छी थी और पटना यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद अब बांका से ही निकलने वाले एक अखबार के लिए रिपोर्टिंग करती थी। अपने इलाके की पहली महिला पत्रकार थी छुटकी..एकदम बेबाक…अपने पापा की ही तरह। अनुपम कथित तौर पर छोटी जाति से ताल्लुक रखता था। छुटकी और अनुपम ने बांका के एक ही स्कूल से 12वीं तक की पढ़ाई की थी। दोनों पहली क्लास से ही साथ पढ़े थे और बहुत अच्छे दोस्त थे। अनुपम 12वीं के बाद इंजीनियरिंग करने सिंदरी चला गया और छुटकी पटना चली गई। इसके बावजूद दोनों फोन पर अक्सर बात-चीत किया करते थे। दोनों की दोस्ती न जाने कब प्यार में बदल गई थी और दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया। अनुपम पढ़ाई पूरी करने के बाद बिहार सरकार के सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर बन गया था। अनुपम पढ़ाई में होशियार था, लेकिन छुटकी के घरवालों को हमेशा लगता था कि वो आरक्षण मिलने की वजह से ही आगे बढ़ पाया है, जबकि हकीकत यह थी कि अनुपम ने कभी भी आरक्षण का लाभ नहीं लिया और हमेशा सामान्य कोटे से ही परीक्षा देता था। उसे पता था कि उसे आरक्षण की जरूरत नहीं है। खैर, घरवालों को कभी अनुपम और छुटकी की दोस्ती को लेकर कुछ खास ऐतराज कभी नहीं रहा। पर पिछले साल होली के मौके पर जब छुटकी ने अपनी मां को यह बात बताई थी कि वो अनुपम से प्यार करती है और शादी करना चाहती है, तब से उसके घरवालों ने अनुपम के उनके घर आने पर पाबंदी लगा दी थी। हालांकि छुटकी और अनुपम बीच-बीच में छिप-छिपाकर मिल ही लिया करते थे। छुटकी का असली नाम प्रतिभा था। वो तो प्यार से सब उसे छुटकी बुलाते थे। वो बड़ी हो गई थी, लेकिन अभी भी अपने मां-पापा के लिए छुटकी ही थी। शादी को लेकर अपने फैसले को बदलने का छुटकी पर भारी दबाव था। घरवालों ने छुटकी को खूब समझाने की कोशिश की थी, लेकिन छुटकी को अपना फैसला खुद करना आता था। वैसे भी वो यह फैसला काफी सोच समझकर ले रही थी। उसकी कलम की पूरे जिले में धाक थी। अधिकारी से लेकर नेता तक उसकी कलम की ताकत से वाकिफ थे। दूसरों के अधिकार के लिए लड़ने वाली छुटकी भला अपने अधिकार पर हमला कैसे बर्दाश्त करती? ऐसा नहीं है कि छुटकी अपने मां और पिताजी की इज्जत नहीं करती थी। उसे अपने मां-पापा से बेहद लगाव था। विश्वंभर अब भी लोगों के सामने अपनी बेटी की तारीफ करते नहीं अघाते थे। पड़ोस में रहने वाली काकी तो हंसकर अक्सर कहा करती थीं कि लगता है ईश्वर ने सिर्फ विश्वंभर को ही बेटी दी है। हालांकि पिछले एक साल से विश्वंभर छुटकी से नाराज रहते थे या कम से कम उसके सामने नाराजगी जाहिर करते थे। छुटकी आवाज भी देती तो जान बूझकर एक दो बार अनसुना कर दिया करते थे। खैर देखते देखते कैसे एक साल बीता पता भी नहीं चला। छुटकी ने इस बीच घर में साफ साफ कह दिया कि वो इस साल अप्रैल में अनुपम से शादी कर लेगी। हालत यह हो गई कि अब एक घर में रहने के बावजूद विश्वंभर ने छुटकी से बात करना भी बंद कर दिया था। दूसरों के सामने अपनी बेटी की तारीफ करते नहीं अघाने वाले विश्वंभर अब छुटकी का जिक्र होते ही बात को टालने की कोशिश करने लगते थे। मां सावित्री भी आजकल छुटकी से ठीक से बात नहीं करती थी। ये वही छुटकी थी, जिसके लिए दोनों ने पता नहीं कितने मंदिरों में मन्नतें मांगी थीं। दरअसल विश्वंभर और सावित्री की शादी के दस साल बाद छुटकी पैदा हुई थी। छुटकी को विश्वंभर अपनी जान से ज्यादा प्यार करते थे। लेकिन समाज में अपनी बदनामी के डर से वे छुटकी की बात नहीं मान रहे थे। इतना सब हो जाने के बावजूद अभी तक न तो छुटकी ने कभी मां-पापा के साथ बदतमीजी की थी और न ही कभी उसके मां-पापा ने उस पर कभी हाथ उठाया था। पर आज शाम को जो कुछ हुआ उसने विश्वंभर और छुटकी दोनों को झकझोर दिया था। छुटकी से आज काफी दिनों बाद उनकी बात हुई, लेकिन धीरे धीरे बात बहस में बदल गई और छुटकी ने उनके साथ बदतमीजी की थी। विश्वंभर ने भी पहली बार छुटकी पर हाथ उठाने की कोशिश की थी, लेकिन छुटकी ने विश्वंभर का हाथ पकड़ लिया था। बिस्तर पर लेटे लेटे विश्वंभर को आज की रात नींद भी नहीं आ रही थी। उन्होंने सोच लिया था कि चाहे जो भी हो वे छुटकी और अनुपम की शादी नहीं होने देंगे। जरूरत पड़ी तो किसी भी हद तक जाएंगे। यही सब सोचते सोचते न जाने कब विश्वंभर की आंख लग गई। दूसरे दिन छुटकी को घर से बाहर नहीं निकलने दिया गया। उसके अखबार से फोन आया तो विश्वंभर ने कह दिया कि छुटकी बीमार है। छुटकी अब अपने उसी माता पिता के पास कैद थी, जिनकी बाहों में वो कभी खुद को सबसे ज्यादा सुरक्षित महसूस करती थी। वो अनुपम को भी खबर करे तो कैसे, फोन तो विश्वंभर ने जब्त कर लिया था और उसे कमरे में बंद कर दिया था। आज तो उसे खाना भी नहीं मिला था। लेकिन उसने भी निश्चय कर लिया था कि वो अगर शादी करेगी तो अनुपम से ही। उसे पूरा विश्वास था कि उसके पापा शादी के बाद उसे स्वीकार कर लेंगे। उसे पता था कि इस संसार में उसे सबसे ज्यादा प्यार उसके पापा ही करते थे, शायद अनुपम से भी ज्यादा। यह और बात है कि समाज में बदनामी के डर से आज उसके पापा उसके सही फैसले का भी विरोध कर रहे थे। अनुपम में कमी ही क्या थी? सरकारी नौकरी में था। उसके पिता रिटायर्ड चीफ इंजीनियर थे। गांव में काफी जमीन थी, मां शिक्षिका थी। बहन की शादी रांची के धनाड्य परिवार में हुई थी। उसने अपने पापा को यह समझाने की बेहद कोशिश की थी, लेकिन विश्वंभर के मन में समाज में बदनामी की बात घर कर गई थी और वे छुटकी की बात सुनने को तैयार नहीं थे। छुटकी ने अपनी मां सावित्री को भी समझाने की कोशिश की थी। उसे लगा था कि सावित्री औरत है और शायद उसकी बात समझ जाए। लेकिन सावित्री भी इस मामले में विश्वंभर के विचारों से सहमत थी और बेटी की शादी छोटी जात के आदमी से करना अपने कुल-खानदान की शान के खिलाफ समझती थी। उधर, बंद कमरे में बिना खाना-पानी के छुटकी को आज 15 घंटे बीत चुके थे। उसके गुलाबी होंट प्यास की वजह से सूखकर सफेद हुए जा रहे थे। छुटकी को अपना बचपन याद आ रहा था। उसके पापा ही तो उसे सारी बात बताते थे। शादी के दस साल बाद जब बांका अस्पताल में उसका जन्म हुआ था, तब विश्वंभर ने तीन दिनों तक पूरे समाज में भोज दिया था। वही छुटकी आज भूख और प्यास से तड़प रही थी, लेकिन विश्वंभर उसी समाज की खातिर उसकी बात मानने को तैयार नहीं थे। उस दिन शाम में छुटकी के कमरे का दरवाजा खोला गया। विश्वंभर ने अपनी कड़क आवाज में छुटकी से कहा कि आखिरी बार सोचने को कहा और परिणाम भुगतने की चेतावनी भी दे डाली। जिस बाप ने हमेशा प्यार से पुकारा था, वो आज उसी छुटकी को धमकियां दे रहा था। छुटकी भला कहां मानने वाली थी, वो अपने पापा की ही बेटी थी। उसने साफ कह दिया कि वो अनुपम से ही शादी करेगी, चाहे परिणाम कुछ भी हो। विश्वंभर शायद ऐसे दो टूक जवाब की अपेक्षा नहीं कर रहे थे। लगभग कांपते हुए विश्वंभर तेजी से बाहर की ओर गए और रसोईघर से एक चाकू उठा लाए। क्या यह वही बाप था, जो हमेशा अपनी लाडली को सीने से चिपकाए घूमता था? खैर, आज विश्वंभर वो विश्वंभर नहीं था। आज उसे बेटी से ज्यादा समाज और ‘इज्जत’ की चिंता थी। विश्वनाथ ने चिल्लाते हुए छुटकी से कहा कि उनके लिए कुल-खानदान की इज्जत सबसे ज्यादा प्यारी है और इसे बचाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। छुटकी का दिल भी पिता के इस रूप को देखकर बैठा जा रहा था। उसके पापा उसके सामने चाकू लेकर खड़े थे और वो भी उसे मारने! छुटकी के दिल में डर नहीं था, लेकिन दुख का तो मानो सागर उमड़ रहा था, जिसकी कुछ बूंदें उसकी आंखों के रास्ते लगातार बाहर आ रही थीं। उसके कंठ से आवाज नहीं निकल रही थी। बड़ी मेहनत करके उसने फिर दोहराया कि वो अनुपम से ही शादी करेगी। छुटकी की इस ‘ढिढाई’ से बिफरी सावित्री ने उसे जोर का चांटा जड़ दिया। छुटकी का सिर चकरा गया। पत्रकार बनने से पहले जिस प्रतिभा का नाम तक कई लोगों को नहीं पता था, जिसे उसके मां-पापा बचपन से ही इतना प्यार करते थे कि कभी छुटकी के अलावा कुछ और नहीं बुलाते थे, जिसे खिलाए बिना जो सावित्री पानी तक नहीं पीती थी। जिसके कहने पर विश्वंभर पूरा बाजार उठाकर ले आते थे। वो छुटकी आज अपने ही मां-पिता के सामने मानो बलि की वेदी पर पड़ी हुई थी। हाय! मां की वो ममता और पापा का वो प्यार कहां खो गया था? आज विश्वंभर आपा खो चुके थे। उन्हें अपनी बेटी कि सिसकियां सुनाई नहीं पड़ रही थीं और उसकी आंखों के आंसू दिखाई नहीं पड़ रहे थे। यही छुटकी बचपन में जब कभी रोती थी तो विश्वंभर का कलेजा कटने लगता था। किसी भी कीमत पर वो छुटकी की हर मांग पूरी करते थे। छुटकी को बुखार आता, तो विश्वंभर रात रात भर नहीं सोते थे। रतजगे के बाद जब विश्वंभर अपने दफ्तर पहुंचते थे, उनके मातहत काम करने वाले लोग उनकी आंखें देखकर समझ जाते थे कि शायद छुटकी की तबीयत ठीक नहीं है। छुटकी के सिवाय विश्वंभर और सावित्री के और था ही कौन? लेकिन दस साल की मन्नतों के बाद जिस संतान को उन्होंने पाया था, जिसकी हर खुशी पर वे खुश होते थे और जिसका हर दर्द उनका दर्द होता था, आज उसकी कोई अहमियत नहीं रह गई थी? छुटकी अब धीरे धीरे निष्प्राण होती जा रही थी। जो कुछ हो रहा था, उसकी कल्पना तक भी उसने कभी नहीं की थी। उसने इस बार बड़ी मुश्किल से, सिसकियों में लिपटे स्वर में एक बार अपने मम्मा-पापू को समझाने की कोशिश की। उसने इस बात का यकीन दिलाना चाहा कि अनुपम बुरा लड़का नहीं है और वो यह फैसला सोच समझकर ले रही है। इससे समाज में कोई बदनामी नहीं होगी। उसने गिड़गिड़ाते हुए स्वर में विश्वंभर से कुछ और कहना चाहा लेकिन सिर्फ पापू…बोलकर चुप हो गई। छुटकी के कांपते होंट उसे कुछ बोलने ही नहीं दे रहे थे, सिसकियां मानो उसके हृदय को चीरकर बाहर आ रही थीं। इधर, विश्वंभर ने मानो दिल पर पत्थर रख लिया था और तय कर लिया था कि समाज के आगे छुटकी क्या खुद की भी नहीं सुनेंगे। खुद की सुनते तो शायद छुटकी को अब तक गले से लगा लिया होता। विश्वंभर को यह बात भी सता रही थी कि जिस बेटी की उंगली पकड़कर उन्होंने उसे चलना सिखाया था, जिस बेटी को उन्होंने जान से भी ज्यादा चाहा था, जो छुटकी उनका संसार थी, वही आज उनकी सुनने को तैयार नहीं थी? आज अनुपम की अहमियत उसके पापा से ज्यादा हो गई थी? विश्वंभर ने तय कर लिया। चाहे जो भी वो आज छुटकी को झुकने पर मजबूर कर देगा। विश्वंभर के इरादों की ही तरह हाथ में पड़े चाकू पर भी विश्वंभर की पकड़ मजबूत हुई जा रही थी। अबतक सावित्री को अनहोनी की आशंका सताने लगी थी। सावित्री को लगने लगा कि विश्वंभर आपा खो चुके हैं। सावित्री छुटकी की बात से सहमत नहीं थी, लेकिन उसे खोना तो बिल्कुल नहीं चाहती थी। सावित्री ने छुटकी की ओर बढ़ रहे विश्वंभर के पैरों को जोर से पकड़ लिया, लेकिन विश्वंभर को रोकना सावित्री के लिए आसान नहीं था। उधर, छुटकी के प्राण क्या लेने थे? उसके प्राण तो अपने पिता के इस रूप को देखकर पहले ही जा चुके थे। पापा की प्यारी छुटकी लगभग बेहोशी की अवस्था में जा चुकी थी। दिमाग चकरघिन्नी की तरह घूम रहा था। मन में बस बचपन की कुछ बातें घूम रही थीं। करीब 5 साल की थी वो जब मंदार मेले में पापा से बिछुड़ गई थी और उसके पापा छुटकी-छुटकी चिल्लाते हुए पूरे मेले में उसे ऐसे ढूंढ रहे थे जैसे अगर वो नहीं मिली तो उनके प्राण ही छूट जाएंगे। वैसे ही वो अपने पापा को ढूंढ रही थी। दोनों के प्राण एक दूसरे में बसते थे। जब मेले में करीब तीस मिनट की मशक्कत के बाद छुटकी नजर आई थी तो विश्वंभर ने उसे ऐसे प्यार किया था, जैसे तीस साल बाद उसे देखा हो। विश्वंभर इस घटना के चार दिनों बाद तक अपने दफ्तर नहीं गए थे और न छुटकी को स्कूल जाने दिया था। वे बस छुटकी को अपने पास लेकर ही बैठे रहते थे। इधर छुटकी का दिमाग अब काम करना बंद करने लगा था। उसने सोचा नहीं था कि उसके वही पापा कभी उसकी जान लेने तक पर उतारू हो जाएंगे। छुटकी का बेजान मन व शरीर अपने पिता का प्रतिरोध कर पाने की स्थिति में भी नहीं था। साढ़े छह फीट लंबे विश्वंभर को रोकने में सावित्री भी नाकाम हो चुकी थी और छुटकी का नाम उन तमाम छुटकियों की लिस्ट में शामिल होने जा रहा था, जो झूठी शान और झूठी इज्जत के नाम पर मार दी जाती हैं और वो भी अपनों के हाथों। विश्वंभर अब छुटकी के बिल्कुल सामने खड़े थे। एक बार के लिए विश्वंभर को भी अपनी पुरानी छुटकी की याद आई, लेकिन समाज में होने वाली बदनामी का डर प्यार पर भारी पड़ा। निष्प्राण सी छुटकी अब सिसकियां भी नहीं ले पा रही थी। बस फर्श पर पड़े पड़े अपने पिता को निहार रही थी। इधर सावित्री विश्वंभर को रोकने का हर संभव प्रयास कर रही थी। सावित्री की ममता जाग चुकी थी। उसे अब लगने लगा था कि बेटी बचेगी तभी इज्जत बचेगी और जब बेटी ही नहीं रहेगी तो यह समाज और यह संसार ही उसके किस काम का रहेगा। विश्वंभर को अब एक ममतामयी मां की मजबूत पकड़ से निकलने में दिक्कत आ रही थी। विश्वंभर को रोकने वाली औरत अब उनकी पत्नी सावित्री नहीं, बल्कि छुटकी की मां सावित्री थी। पता नहीं क्यों पर एकबारगी विश्वंभर की आंखों में भी आंसू भर आए थे। लेकिन उनका निश्चय दृढ़ था। समाज में अपनी इज्जत उनके लिए ज्यादा प्यारी थी। सावित्री के साथ झड़प में उनके हाथ से चाकू गिर पड़ा। विश्वंभर छुटकी का गला दबाने की नीयत से उसकी ओर झपटे। अगले ही पल सबकुछ खत्म हो गया होता अगर विश्वंभर के कानों में पड़ोस की रहने वाली छोटी सी सुष्मिता के रोने की आवाज न आई होती। वो शायद अपनी मां से किसी चीज की जिद कर रही थी और बार बार पापा….पापा…बोलकर रोई जा रही थी। छुटकी भी तो बचपन में जब भी मां से नाराज होकर रोती, ऐसे ही अपने पापा को पुकारकर रोती थी। विश्वंभर सुष्मिता के रोने की आवाज सुनकर रुक गए थे। छुटकी की ओर बढ़े हाथ जोर जोर से कांप रहे थे। पैरों में खड़े रहने तक की भी ताकत महसूस नहीं हो रही थी। लंबे चौड़े विश्वंभर धम्म से जमीन पर बैठ गए। विश्वंभर का सिर चकरा रहा था और उनकी आंखों के सामने उनकी छोटी सी छुटकी घूम रही थी और मानो कानों में उसकी तोतली आवाज गूंज रही थी। 25 साल पहले इसी मार्च महीने में उनकी छुटकी का जन्म हुआ था। नर्स ने छुटकी के जन्म के तुरंत बाद छुटकी को लाकर सबसे पहले विश्वंभर के हाथों में दिया था। विश्वंभर ने पहले कभी किसी बच्चे को अपनी गोद में नहीं लिया था, लेकिन अपनी छुटकी को कुछ इस तरह से अपने सीने से सटाकर रखा था, जैसा कि शायद सावित्री भी नहीं कर पाती। घर आने के बाद भी सावित्री और छुटकी दोनों की सेवा विश्वंभर खुद अपने हाथों से किया करते थे। विश्वंभर की आंखों के सामने अपनी छुटकी का हंसता हुआ चेहरा घूम रहा था। विश्वंभर के कानों में अपनी छुटकी की वो पहली आवाज गूंज रही थी, जब छुटकी ने पहली बार न जाने अपनी तोतली आवाज में क्या कहा था और विश्वंभर को वह शब्द ‘पापा’ सुनाई पड़ा था। तब घर में मौजूद सारे लोग विश्वंभर पर हंसे भी थे। लेकिन विश्वंभर ने छुटकी के पहले बार ‘पापा’ बुलाने पर अच्छी खासी पार्टी दे दी थी। एक बार जब विश्वंभर की बाइक सड़क पर फिसल गई थी और छुटकी बाइक की पेट्रोल टंकी पर बैठी हुई थी, तब विश्वंभर ने सबकुछ छोड़कर छुटकी को पकड़ लिया था और विश्वंभर का पैर टूट गया लेकिन उसने छुटकी पर आंच भी नहीं आने दी थी। इधर, इन्हीं ख्यालों में डूबे विश्वंभर न जाने कब अचेत हो गए और जब होश आया तो खुद को अस्पताल में पड़ा पाया। सिरहाने पर उनकी प्यारी छुटकी बैठी थी और उनका माथा सहला रही थी। झूठी इज्जत और शान के लिए विश्वंभर कल इसी छुटकी की हत्या करने वाले थे। विश्वंभर ने छुटकी को देखा तो लपककर उसे गले से लगा लिया। छुटकी विश्वंभर के आंसूओं से लगभग भीग चुकी थी। बाप-बेटी का प्रेम देखकर सावित्री भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी। विश्वंभर को इस बात का अहसास हो गया था कि वे झूठी शान और झूठी इज्जत के नाम पर क्या करने जा रहे थे। उनका दिल अपराध बोध से बैठा जा रहा था। वे खुद को माफ नहीं कर पा रहे थे, हालांकि उनकी प्यारी छुटकी ने इतना सबकुछ होने के बाद भी उन्हें माफ कर दिया था। आखिरकार वो उनकी बेटी थी। खैर, विश्वंभर बिना वक्त गंवाए अगले ही दिन अनुपम के घर पर छुटकी का रिश्ता लेकर पहुंचे। एक महीने बाद 12 अप्रैल को अनुपम और छुटकी की शादी तय हुई। देखते देखते शादी का दिन भी आ गया। विश्वंभर का घर दुल्हन की तरह सजा था। छुटकी बेहद सुंदर लग रही थी। बारात भी आ गई थी। कन्यादान का मूहुर्त बीता जा रहा था, लेकिन विश्वंभर विवाह मंडप पर नजर नहीं आ रहे थे। छुटकी उन्हें ढूंढती हुई उनके कमरे में पहुंची। विश्वंभर ध्यानमग्न होकर कुछ लिख रहे थे और उनकी आंखों में आंसू थे। वे इतने तल्लीन थे कि छुटकी की मौजूदगी तक का उन्हें अहसास नहीं था। इधर, जब छुटकी की नजर उस कागज पर पड़ी तो वो सन्न रह गई। विश्वंभर सुसाइड नोट लिख रहे थे। उन्होंने छुटकी के साथ जो कुछ किया था, उसके भार से वे लगातर दबे चले जा रहे थे। भले ही बाहर से वे खुश नजर आते थे, लेकिन अंदर ही अंदर वो घुटते जा रहे थे। छुटकी ने झपटते हुए विश्वंभर के हाथों से कागज का वो टुकड़ा छीन लिया और रोते हुए पिता से लिपट गई। विश्वंभर को समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। जिस दिन उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ था, उसी दिन उन्होंने यह तय कर लिया था कि वे छुटकी का कन्यादान करने के बाद खुद को खत्म कर लेंगे। पाप के इस बोझ के साथ जीना उनके लिए संभव नहीं था। पाप की गठरी ढोनी आसान नहीं होती। झूठी शान के लिए वे जिस बेटी की हत्या करने पर उतारू थे, उस बेटी ने अपने माता-पिता की इज्जत की खातिर उस रात की बात अपने सीने में ही दफन कर दी थी और अपने होने वाले पति अनुपम को भी इस राज का हमराज नहीं होने दिया था। लेकिन विश्वंभर खुद को क्या जवाब देते? खैर, एक बार फिर से छुटकी ने उन्हें गलत काम करने से रोक दिया था। अपने पिता के सीने से लगकर छुटकी उन्हें अब अपनी सौगंध दे रही थी। छुटकी को पता था कि उसके पापा की जिद के सामने अगर कोई खड़ी हो सकती थी तो वो छुटकी ही थी। अगले पल विश्वंभर अपनी छुटकी को कुछ इस कदर प्यार कर रहे थे, जैसे गंगा में पाप धोने के अहसास के बाद कोई पुजारी शुद्ध मन से मंदिर में पूजा करता है।

‘बेजुबान’

अखबार में जगह की कमी की वजह से मेरी पहली कहानी ‘बेजुबान’ काफी एडिट हो गई थी, इसलिए मूल कहानी को यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ। आप की प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।

‘बेजुबान’

उस बेजुबान ‘गोविंद’ का जन्म उमाकांत के घर पर ही हुआ था। वो उमाकांत को देखते ही उनकी तरफ दौड़ पड़ता था, उमाकांत की जान भी मानो उसी में बसती थी। ‘गोविंद’ छोटा ही था जब उसकी मां ‘गौरी’ की बीमारी से मौत हो गई थी। ‘गोविंद’ ने शायद यह महसूस भी किया होगा कि किस प्रकार से उमाकांत व उनकी पत्नी पद्मा ने उसकी मां ‘गौरी’ की मरने से पहले सेवा की थी। गोविंद भी अब करीब 12 साल का हो चुका था और खेती के काम में उमाकांत की बहुत मदद करता था। चाहे खेत की जुताई हो या फिर अनाज की ढुलाई, वो बेजुबान बिना थके पूरा दिन मेहनत करता था। उमाकांत व पद्मा की गृहस्थी की गाड़ी ठीक से चल रही थी। एक बेटी थी छाया, वो पढ़ाई में अच्छी थी और बीएड करके जमशेदपुर के एक नामी स्कूल में पढ़ाती थी। उसकी शादी भी अच्छे घर में हुई थी। उमाकांत व पद्मा को एक बेटा भी था, जिसका नाम पारस था। पारस भी पढ़ाई में होशियार था और बड़ी मेहनत व आर्थिक तंगी के बीच उसने आईआईटी दिल्ली से बीटेक किया था और अब बढ़िया नौकरी कर रहा था। पारस साल में एक बार दुर्गा पूजा में घर आ पाता था, छाया भी जमशेदपुर में रहती थी, लेकिन कम ही गांव आ पाती थी। गांव के अपने घर में कुल मिलाकर अब उमाकांत और पद्मा ही रह गए थे। उमाकांत अभी भी खुद से खेती करते थे और ‘गोविंद’ उनकी खूब मदद करता था। उमाकांत और पद्मा भी बिना ‘गोविंद’ को खिलाए खुद नहीं खाते थे। ‘गोविंद’ भले ही बेजुबान था लेकिन उमाकांत उसके हाव-भाव से ही उसकी जरूरतें समझ जाते थे। घर में अब किसी प्रकार की दिक्कत नहीं थी। उमाकांत साल भर की मेहनत के बाद खेती से जो कमाते थे, उससे कहीं ज्यादा उनका बेटा उन्हें अब हर महीने भेज दिया करता था। उमाकांत व पद्मा बच्चों के साथ नहीं रह पाते थे बस यही एक कमी उन्हें खलती थी। पारस और छाया दोनों उन्हें अपने पास बुलाते थे, लेकिन गांव और ‘गोविंद’ को छोड़ना उन्हें गंवारा नहीं था सो दोनों ने गांव में ही रहना तय कर लिया था। खैर, जीवन की गाड़ी ठीक से ही चल रही थी। भला हो मोबाइल फोन का कि दिन में कम से कम एक बार बेटी और बेटे से बात हो जाती थी। मोबाइल फोन के जरिए ही नाती-पोते की आवाज भी सुन लेते थे। गांव में रहने के बावजूद उमाकांत व पद्मा को फुर्सत नहीं रहती थी। ग्रामीणों के बीच दोनों की छवि बढ़िया थी, लिहाजा घर पर लोगों का आना जाना लगा रहता था। पद्मा कुछ गरीब बच्चों को पढ़ाती भी थी। भगवान की दया से अब घर भी अच्छा बन गया था। ‘गोविंद’ भी पहले फूस की गुहाल (गोशाला) में रहता था, लेकिन अब उसके रहने के लिए भी बढ़िया इंतजाम कर दिया गया था। सब ठीक ही चल रहा होता अगर उस रात उमाकांत घर की आंगन में फिसल कर गिरे नहीं होते। बहुत जोर से चोट लगी थी। रात भर उनकी कराह सुनकर पद्मा परेशान थी और ‘गोविंद’ की आंखों से तो जो अश्रुधारा बहनी शुरू हुई वो थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। वो रात बड़ी लंबी साबित हो रही थी। मामूली चोट समझकर दोनों ने किसी को फोन भी नहीं किया था। लगा छाया और पारस व्यर्थ ही परेशान हो जाएंगे। बेजुबान ‘गोविंद’ के पास आवाज नहीं थी, लेकिन अगर किसी ने उमाकांत के लिए ईश्वर से सबसे ज्यादा प्रार्थना की होगी तो वो ‘गोविंद’ ही होगा। उस लंबी रात के बाद जैसे ही सुबह हुई वैसे ही ग्रामीणों की सहायता से उमाकांत को पास के शहर में स्थित अस्पताल ले जाया गया। पद्मा साथ ही गई थीं। घर पर सिर्फ ‘गोविंद’ था। ऐसा पहली बार हुआ था, जब वो घर पर अकेला रह गया था। लेकिन उसे अपने खाने पीने की चिंता नहीं थी, बस उमाकांत की चिंता थी। उसे नहीं पता था कि उसके मालिक को हुआ क्या था। उधर, एक्सरे के बाद डॉक्टरों ने पाया कि उमाकांत के पैर की हड्डी में फ्रैक्चर है। अब तक पारस और छाया को भी जानकारी हो चुकी थी। छाया अपने पति के साथ पिता को देखने रवाना हो चुकी थी। इस बीच डॉक्टरों ने उमानाथ के पैर पर प्लास्टर चढ़ाया और रॉड लगाने के लिए ऑपरेशन करने की जरूरत बताई। पारस चाहता था कि ऑपरेशन दिल्ली में हो, सो छाया, उसके पति रविकांत व पद्मा उमाकांत को ट्रेन से लेकर दिल्ली चले आए। जिंदगी में पहली बार उमाकांत अपने बेटे के घर दिल्ली आए थे, लेकिन वो भी इस हालत में। उन्हें अब अपने पैर से ज्यादा चिंता गांव में अकेले छूट गए ‘गोविंद’ की हो रही थी। उधर, चार दिन बीत जाने के बाद भी उमाकांत और पद्मा को नहीं देखकर गोविंद का दिल मानो बैठा जा रहा था। उमाकांत ने पास में रहने वाले अरविंद को ‘गोविंद’ के खाने का इंतजाम करने को कह दिया था, लेकिन खाना ‘गोविंद’ के गले के पार ही नहीं हो रहा था। उस बेजुबान को भला उमाकांत के अलावा और कौन समझा पाता कि सब ठीक है, घबराने की कोई जरूरत नहीं है। उमाकांत भी समझ रहे थे कि ‘गोविंद’ की क्या हालत होगी, लेकिन वे लाचार थे। उमाकांत ने पद्मा को गांव लौटने को कहा था, लेकिन पद्मा भला अपने बीमार पति को छोड़कर कैसे गांव लौटती। पारस और छाया को ‘गोविंद’ की कोई खास चिंता थी भी नहीं। एक दिन बाद उमाकांत के पैर का ऑपरेशन कर दिया गया, लेकिन परिवारवालों ने यह तय किया कि कम से कम एक महीने तक उमाकांत को गांव वापस नहीं लौटने दिया जाएगा। डॉक्टर भी इसी पक्ष में थे, यहां रहने पर मरीज की स्थिति का फॉलोअप करना आसान था। उमाकांत मानने को तैयार नहीं थे, उन्हें सबसे ज्यादा चिंता ‘गोविंद’ की थी। अरविंद ने उमाकांत को बताया था कि जबसे वे गए हैं ‘गोविंद’ ने खाना पीना ही छोड़ दिया है। उमाकांत खुद आने की स्थिति में होते तो किसी की भी नहीं सुनते, पर पैर का ऑपरेशन हुआ था सो खुद ब खुद आ नहीं सकते थे। देखते देखते पंद्रह दिन बीत गए और सोलहवें दिन की सुबह अरविंद का फोन आया। अरविंद ने उमाकांत को बताया कि ‘गोविंद’ की हालत खराब है और यहां तक कि उसकी जान भी जा सकती है। अब तो उमाकांत बगावती हो गए। क्या डॉक्टर, क्या पद्मा, क्या बेटा और क्या बेटी…किसी की भी सुनने को तैयार नहीं। उमाकांत की जिद के आगे किसी की एक नहीं चली। आखिरकार उमाकांत अपने बेटे और बीवी पद्मा के साथ अपने गांव लौटे, लेकिन इस शर्त पर कि दस दिन बाद वे वापस चेकअप के लिए दिल्ली जाएंगे। उमाकांत ने घर पहुंचकर जैसे ही ‘गोविंद’ को आवाज दी, गोविंद के मानो जाते हुए प्राण लौट आए। उमाकांत ने ‘गोविंद’ को जिस तरह से प्यार किया वो तो शायद कोई अपने बच्चे को भी नहीं करता होगा। ‘गोविंद’ अपने तरीके से खुशी का इजहार कर रहा था। दूसरे दिन सुबह सूर्यास्त के काफी पहले से ही ‘गोविंद’ अपने चिर परिचित अंदाज में उमाकांत को आवाज देने लगा। उमाकांत भी मानो बस उसी की टेर का इंतजार कर रहे थे। दोनों के बीच बिना बोले ही पता नहीं कितनी बातें हो गईं। देखते ही देखते नौ दिन बीत गए और अब उमाकांत को दूसरे दिन अहले सुबह दिल्ली रवाना होना था। उमाकांत उस शाम काफी देर तक ‘गोविंद’ के पास ही बैठे रहे और ‘गोविंद’ इन सब बातों से बेखबर उमाकांत को सामने देखकर खुश हुआ जा रहा था। दूसरे दिन सुबह जैसे ही घड़ी ने साढ़े छह बजाए उमाकांत को लेने टैक्सी आ गई। उमाकांत और पद्मा को अब निकलना था। निकलने से पहले ‘गोविंद’ से मिलने जब उमाकांत आए, तब ‘गोविंद’ को लगने लगा था कि सबकुछ सामान्य नहीं है। उमाकांत दिल्ली रवाना हो गए और इधर सूने घर में ‘गोविंद’ एक बार फिर अकेला था। अरविंद शाम में ‘गोविंद’ को खाना देने के लिए आया, लेकिन ‘गोविंद’ ने इस बार गुस्से से खाने को देखा तक नहीं। शायद ‘गोविंद’ को लग रहा था कि उसके मालिक उमाकांत अब तो ठीक हो चुके थे, तो उसे छोड़कर फिर क्यों गए। दूसरे दिन सुबह उमाकांत दिल्ली पहुंचे और सबसे पहले पारस से चार दिन बाद की वापसी के टिकट के लिए कहा। पारस शायद इस बार तय कर चुका था कि वो मां और पिता जी को जाने नहीं देगा। वो अपने मां-बाप के साथ रहना चाहता था और उसकी नौकरी इसकी इजाजत नहीं देती थी कि वो गांव में जाकर रह सके। एक ही उपाय था कि उसके मां-बाप ही उसके पास रहें। लेकिन पारस की इस सोच की सबसे बड़ी बाधा और कोई नहीं बल्कि ‘गोविंद’ था, क्योंकि उसके पिता उमाकांत ‘गोविंद’ को छोड़कर रहने को तैयार नहीं थे और दिल्ली के इस फ्लैट में ‘गोविंद’ को लाना संभव नहीं था। पारस की आंखों में अब ‘गोविंद’ खटकने लगा था। पारस ने सबसे पहले अपनी मां पद्मा से इस बात का जिक्र किया। पद्मा को भी कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। तभी पारस ने पद्मा से कहा कि क्यों न ‘गोविंद’ को किसी और को दे दें। यह सुनकर पद्मा भी भावुक हो उठी और इसके लिए साफ इनकार कर दिया। लेकिन फिर बेटे की मजबूरी और ममता के आगे बेबस होकर हामी भर दी। दोनों ने तय किया कि इस बात की खबर उमाकांत को नहीं होने देंगे और किसी तरह से उमाकांत को पंद्रह-बीस दिनों तक घर नहीं जाने देंगे। पारस ने गांव में ‘गोविंद’ की देखभाल कर रहे अरविंद को फोन लगाया और ‘गोविंद’ को किसी और को बेच देने को कह दिया, साथ में यह हिदायत भी दे दी कि वे इस बात का जिक्र फिलहाल उसके पिता उमाकांत से न करें। उमाकांत दिन में दो बार अरविंद को फोन करके ‘गोविंद’ का हाल चाल जाना करते थे। ‘गोविंद’ पिछली बार की तुलना में इस बार थोड़ा सामान्य था और कम से कम खाना खा रहा था। उधर उमाकांत पर पद्मा व पारस थोड़े दिन रुकने का दबाव बना रहे थे। पोते-पोती के साथ वैसे तो उमाकांत को मजा आ रहा था, लेकिन रह रहकर ‘गोविंद’ की चिंता सताती थी। हालांकि ‘गोविंद’ की बेहतर स्थिति की जानकारी होने के बाद इस बार उमाकांत ने भी पत्नी और बच्चों की बात मानने का मन बना लिया। उधर, गांव में अरविंद ‘गोविंद’ के लिए रोज नए ग्राहक ढूंढ कर ला रहा था। ‘गोविंद’ को तो गांव में ही कोई और व्यक्ति ले लेता, लेकिन अरविंद को पारस ने साफ कहा था कि उसे कहीं दूर बेचना है ताकि उमाकांत उसे फिर ढूंढ न पाएं। वैसे भी गांव में उसकी कोई क्या कीमत लगाता, सबको पता था कि ‘गोविंद’ उमाकांत के लिए अनमोल है। गांववालों को अरविंद ने जानबूझकर बताया भी नहीं था। किसी को पता चलता तो सीधे उमाकांत को खबर कर देता या कम से कम पूछने के लिए फोन तो करता ही। इधर, काफी दिन बीत जाने के बाद भी उमाकांत और पद्मा को अपने पास न पाकर ‘गोविंद’ फिर से उदास रहने लगा था और उसने खाना पीना कम कर दिया था। अरविंद को लगा कि अगर ‘गोविंद’ ने दो-चार दिन तक खाना छोड़ दिया तो फिर अच्छे दाम नहीं मिलेंगे। अरविंद ने अगली सुबह शनिवार को ‘गोविंद’ को शहर के हाट में ले जाने का फैसला किया। दूसरे दिन बड़ी मुश्किल से अरविंद ‘गोविंद’ को शहर के हाट में लेकर पहुंचा। वहां मौजूद किसान ‘गोविंद’ के लिए करीब 7000 रुपये का भाव बता रहे थे, सौदा पक्का भी होने वाला था कि तभी एक गोरा चिट्टा जवान वहां आया और अरविंद के हाथ में 11000 रुपये थमाकर ‘गोविंद’ की रस्सी अपने हाथों में थाम ली। ‘गोविंद’ भले ही बैल था, लेकिन उसने अभी तक कभी भी उमाकांत के अलावा किसी की नहीं सुनी थी। ‘गोविंद’ ने अपना शरीर दूसरी दिशा में खींचना शुरू किया, लेकिन तभी उस जवान के साथ मौजूद दो लोगों ने ‘गोविंद’ के शरीर में एक इंजेक्शन दिया और ‘गोविंद’ थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया। ‘गोविंद’ को एक ट्रक में लादकर वे लोग कोलकाता की ओर जाने वाले हाइवे पर चल दिए। उस ट्रक पर पहले से भी कुछ जानवर लदे हुए थे। जब ‘गोविंद’ को होश आया उसने खुद को अपने जैसे कुछ गायों व बैलों के बीच में पाया। उस ट्रक पर खड़े होने की भी जगह नहीं थी और ट्रक का पिछला हिस्सा पूरी तरह से कपड़े से ढंका हुआ था। ट्रक असहाय खड़े ‘गोविंद’ व कुछ अन्य जानवरों को लिए कोलकाता की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। शाम में उमाकांत ने अरविंद को फोन किया और रोज की तरह ‘गोविंद’ के बारे में पूछा तो अरविंद ने बात टाल दी। पता नहीं क्यों पर उस रात उमाकांत को नींद नहीं आई। उमाकांत ने दिल्ली में कुछ दिन और रहने की योजना रद्द कर दी और दूसरे दिन की ट्रेन में तत्काल टिकट देखने के लिए पारस को कहा। उमाकांत की बेचैनी और उनके दृढ़ निश्चय भरी आवाज के सामने पारस और पद्मा की एक नहीं चली। पारस और पद्मा अब घबरा गए थे। उन्होंने तो उमाकांत के प्यारे ‘गोविंद’ को बिकवा दिया था। पद्मा का हृदय तो अपराध बोध की वजह से बैठा जा रहा था। दूसरे दिन की गाड़ी का टिकट हो चुका था। पारस नहीं जा रहा था। उमाकांत और पद्मा जा रहे थे। उमाकांत गाड़ी में बैठ चुके थे, गाड़ी चली जा रही थी, लेकिन उमाकांत का मन तो बस अपने ‘गोविंद’ को लेकर चिंतित हुआ जा रहा था। ‘गोविंद’ कोई इनसान होता तो शायद मोबाइल फोन के जरिए उससे उमाकांत बात कर पाते। पर वो तो बेजुबान था। यह अलग बात है कि उमाकांत और ‘गोविंद’ एक दूसरे की आंखों को देखकर पता नहीं बिना कहे ही क्या क्या बातें कर लेते थे। उमाकांत ट्रेन पर ही थे कि उनके गांव के ही बचपन के मित्र सरयू का फोन आ गया। सरयू ने शिकायती अंदाज में उमाकांत से पूछा कि अगर ‘गोविंद’ को बेचना ही था तो उन्हें क्यों नहीं बेचा या पूछा क्यों नहीं। उमाकांत के कानों में मानो किसी ने शीशा पिघलाकर डाल दिया था। उमाकांत को जो भी गाली आती थी, उन्होंने सरयू को दे डाली। उमाकांत को लगा कि सरयू उनसे मजाक कर रहा है। बगल में बैठी पद्मा का दिल समय बीतने के साथ और बैठा जा रहा था। उमाकांत के सामने अगर आज खुद महादेव प्रकट हो जाते तो वो सिर्फ एक ही चीज मांगते कि उन्हें उनके ‘गोविंद’ के पास जल्दी पहुंचा दें। खैर, कोहरे की वजह से ट्रेन सात घंटे लेट हो चुकी थी। जो ट्रेन रात के दस बजे उनके शहर पहुंचती वो अब सुबह के पांच बजे पहुंची थी। यहां से गांव जाने में भी दो घंटे लग जाते थे। करीब 7.15 बजे सुबह जब उमाकांत अपने घर पहुंचे तो उनके घर के आगे बने प्लेटफॉर्म नुमा ढांचे पर बैठकर गांव के कुछ लोग हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे और किसी गंभीर चिंतन में व्यस्त थे। उमाकांत को यह सब कुछ नहीं दिख रहा था। वे तो बस एक बार अपने ‘गोविंद’ को देखना चाहते थे और उसे अपने हाथों से खिलाना चाह रहे थे। उमाकांत ने घर की बाहर की तरफ बने गुहाल (गोशाला) का दरवाजा खोला तो ‘गोविंद’ वहां नहीं था। अब उमाकांत के कानों में सरयू की कही बात गूंजने लगी थी। लग रहा था मानो उसके दोनों कानों पर कोई हथौड़ा चला रहा हो और सिर किसी लट्टू की भांति तेजी से घूम रहा हो। अचानक उसके कंधों पर किसी ने हाथ रखा। यह और कोई नहीं बल्कि उमाकांत के बचपन का दोस्त सरयू था। सरयू ने उमकांत को सारी बात बताई। उमाकांत रोते रोते अरविंद के घर पहुंचे। अरविंद ने उन्हें सारी बात बताई। उमाकांत को अपनी पत्नी और बेटे पर बहुत तेज गुस्सा आ रहा था, लेकिन इस वक्त उन्हें सबसे पहले ‘गोविंद’ का पता लगाना था। उमाकांत मवेशियों की खरीद बिक्री करने वाले एक व्यक्ति के पास पहुंचे तो पता चला कि शनिवार को कोलकाता से कुछ व्यापारी आए थे और एक ट्रक में भरकर जानवर कोलकाता लेकर गए थे, शायद ‘गोविंद’ भी उसी में था। यह सुनकर उमाकांत का दिल बैठा जा रहा था। आम तौर पर छोटी जगहों से पशुओं को खरीदकर इस तरह से ट्रक में भरकर बड़े शहर ले जाने का काम कसाई ही करते हैं। यह बात जैसे ही उमाकांत के मन में आई, उमाकांत बेहोश होकर गिर पड़े। उधर, गांव में पद्मा और दिल्ली में पारस अपराध बोध से भरे हुए थे। पारस आज दफ्तर भी नहीं गया था। उसे अपने किए पर पछतावा हो रहा था। पारस को भी अंदाजा हो चुका था कि ‘गोविंद’ किसी कसाई के हाथ पड़ चुका है। पारस ने कोलकाता में रहने वाले अपने एक आईपीएस मित्र सुधीर को फोन लगाया। सुधीर ने करीब आधे घंटे बाद पारस को बताया कि उसी दिन सुबह झारखंड से कोलकाता आ रहा एक ऐसा ही ट्रक पुरुलिया के पास जब्त हुआ है, जिस पर जानवर लदे हुए हैं। जो पारस गोविंद से नफरत करता था, वही पारस उसी वक्त, बिना समय गंवाए, दिल्ली एयरपोर्ट के लिए निकल पड़ा। उसे अगले तीन चार घंटे में कोलकाता पहुंचना था। वहां से वो अपने आईपीएस मित्र के साथ पुरुलिया जाने वाला था। जिस ‘गोविंद’ से वो नफरत करता था आज अपने पिता की खातिर उसी गोविंद को ढूंढने के लिए वो इतनी मेहनत कर रहा था। उधर, गांव में उमाकांत को होश तो आ गया था, लेकिन निराश उमाकांत ने अन्न जल का त्याग कर दिया। मानो उनकी आत्मा जल्द से जल्द शरीर के बंधन से मुक्त हो जाना चाहती थी और गोविंद के पास पहुंचना चाहती थी। पद्मा के सारे प्रयास विफल हो चुके थे। उमाकांत गुहाल में एक चारपाई पर वहीं पर लेटे हुए थे, जहां ‘गोविंद’ रहता था। उमाकांत को ‘गोविंद’ के बारे में सिर्फ बुरे ख्याल आ रहे थे और उनकी आत्मा विचलित होती जा रही थी। ‘गोविंद’ इंसान नहीं था तो क्या हुआ। उसे उन्होंने अपने बच्चे की तरह से पाला था। उधर, सुधीर के साथ पारस पुरुलिया पहुंच चुका था। थाने में खड़े ट्रक की ओर जैसे जैसे पारस के कदम बढ़ रहे थे, पारस की सांसें तेज होती जा रही थीं। पारस ने पता नहीं इतनी देर में कहां कहां और क्या क्या मन्नतें मांग ली थीं। उसने अपने किसान पिता को पहचानने में भूल की थी। एक किसान के लिए गाय और बैल जानवर नहीं बल्कि उसके घर के सदस्य की तरह होते हैं। पारस अपने आईपीएस मित्र सुधीर के साथ थाने में आया था, लिहाजा उसे थाने में ठीक से बिठाया गया और उस ट्रक की ओर ले जाया गया, जिस पर जानवर लदे हुए थे। पारस की अंदर झांकने की हिम्मत नहीं हुई, उसने भगवान का नाम लेकर बस एक बार पुकारा ‘गोविंद’…..ट्रक के अंदर से जो आवाज आई, उसने पारस की आंखों में चमक भर दी। यह आवाज किसी और की नहीं बल्कि ‘गोविंद’ की थी। पारस ने ‘गोविंद’ को छूने की खूब कोशिश की, लेकिन शायद ‘गोविंद’ को पारस की नहीं बल्कि उमाकांत की जरूरत थी। ट्रक अब वापस उमाकांत के गांव की ओर दौड़ा चला जा रहा था। उसी ट्रक में पारस भी बैठा हुआ था। उमाकांत को अब तक खबर मिल चुकी थी, लेकिन उमाकांत को किसी के कहे पर भरोसा नहीं था, पद्मा के कहे पर भी नहीं, जिसने पूरे जीवन उमाकांत का साथ दिया था, लेकिन शायद यह नहीं समझ पाई थीं कि ‘गोविंद’ उमाकांत के लिए एक जानवर नहीं बल्कि बेटे जैसा है। शाम के करीब 5 बजे जैसे ही चारपाई पर पड़े उमाकांत के कानों में ट्रक की आवाज आई, उमाकांत मानो बिजली की सी तेजी से दरवाजे की ओर लपके। दरवाजे पर ट्रक खड़ा था। उमाकांत ने बड़े प्यार से आवाज लगाई ‘गोविंद’….बेटा….गोविंद…। ट्रक के अंदर से गोविंद ने चिर परिचित अंदाज में अपनी आवाज में उमाकांत को जवाब दिया। जैसे ही ट्रक के पिछले हिस्से में मौजूद बैरियरनुमा सरिया हटाया गया, दूसरे जानवरों को लगभग लांघते हुए ‘गोविंद’ उमाकांत की ओर दौड़ पड़ा। यह मिलन सारे गांववालों के लिए अद्वितीय था। आज जानवर और इंसान का भेद लोगों ने मिटते हुए देखा था। उमाकांत ‘गोविंद’ को चूमते जा रहे थे और ‘गोविंद’ अपनी जीभ से उमाकांत को लगभग भिगा चुका था। पद्मा भी बाहर आ चुकी थी। उसके एक हाथ में पानी से भरा ग्लास था, तो दूसरे में पानी से भरी एक बाल्टी। पद्मा ने पानी का ग्लास उमाकांत की ओर बढ़ाया तो बाल्टी ‘गोविंद’ की ओर। दोनों भूखे प्यासे थे सो देखते ही देखते पूरा पानी पी गए। पारस की आंखों के आंसू रुकने के नाम नहीं ले रहे थे। ये खुशी के आंसू थे। पारस ने तय कर लिया था कि वो अब साल में एक बार नहीं, बल्कि महीने में एक बार अपने गांव अवश्य आएगा। साथ ही ट्रक में मौजूद दूसरे जानवरों के लिए उसने एक गोशाला बनाने का भी निश्चय कर लिया था। एक बेजुबान ‘गोविंद’ ने आईआईटीयन पारस को प्यार की भाषा सिखा दी थी। ‘गोविंद’ ने पारस को यह बता दिया था कि जानवर और इंसान के बीच कोई फर्क नहीं होता। ईश्वर ने भले ही उसे बोलने की शक्ति नहीं दी थी, लेकिन बिना बोले ही उसने इंसान को इंसान होने का मतलब बताया था। दूसरे दिन की सुबह कुछ खास थी।